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परिशिष्टम् - १९, ध्यानदीपिकाचतुष्पदी
दुखतिको विण सुख कह्यो मुनिरायने, ज्ञानी० ज्ञान विना अति दुःख कह्यो सुररायने । ज्ञानी० १८ ज्ञेय ध्येय निज देव जाणि संशय हरी, ज्ञानी० देवचंद्र सुप्रीति धरो मन थिर करी । ज्ञानी० १९
[हा]
विषयथकी सुख ना हवे, तोही धरे जड प्रीति; अति दाख्यां पिण मूढथी, न लखे आतम रीति । १ पररागीकुं ज्ञान नहि, तिण उपदेश म देहि; अज्ञानी जडलीन छे, ज्ञानी ज्ञानने गेह । २ जो गति निज ज्ञानसुं, जोड्यां भवक्षय जोय; पट जिम तन जूने हुये, आतम जीर्ण न होय । ३ थीर जोगि ते जग सथिर, जाणी ते शिवजंति; ज्ञान ज्योति जाण्या विना, बंध छेद न करंति । ४ पुद्गलगण तनु आत्मसम, अज्ञानी मानंति; आत्मज्ञान विना मुगति, अस्थिरता दुषयंति । ५ स्थूल सूक्ष्म गुरु जीर्ण लघु, दीर्घ दुखी तन रंग; ध्यान काज ज्ञानी तजे, योग चपल मनसंग । ६ गाम नगर तुज ठाम नहि, तुज थानक निज नाण; देह राग भव राग तजि, भिन्न आत्मतनु जाण ॥७ चेतनथी तनु परि गिण्यां, न खलाये मुनि नाण; जग काकर सम ते गिणे, शुद्ध ज्ञान सहिनाण । ८ तन पर दाख्यां शिव नहीं, जां नवी भेद प्रतीत; सुपने पिण तनुराग तजि, धरी आत्मगुण प्रीत । ९
राग
धन्याश्री]
[ढाल - ९ भविक जन आतम ध्यान धरो, तजी संकल्प शुभाशुभ बंधक; निज परमारथ वरो । भविक० १
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प्रथम बाह्य संयम छे साधक, निश्चय आत्म खरो; जन्म लिंग तन एह अनादि, आतमसुं ऊपरो । भविक० २ अंध पंगु जिम जोग अथिर छे, त्युं तन थे जीउरो; ज्ञानि आतमज्ञानसे दीन प्रति, तन थे भिन्न खरो । भविक० ३ मदमातो निज पर नवि बूझे, त्युंजी उपज करो; आपापर जाण्या तिनु पटणो, निफल गिण सगरो । भविक० ४ वाटि दीपसंगति है दीपक, त्युं शिव यह जीउरो; परमातम सम ध्यान आराध्यां ह्वै चेतन उजरो । भविक० ५
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