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परिशिष्टम्-१९, ध्यानदीपिकाचतुष्पदी
देहभणी निज बुद्धि अज्ञान अनादिनो, ज्ञानी० देह जीव गिण एक हठी ते वादिनो, ज्ञानी० देहमित्र निज बुद्धि ठगे सहू लोक ए । ज्ञानी० ४ इंद्रिय विषय दमो रमो निज ज्ञानस्युं, ज्ञानी० तजि बहिरातमराग लगो निज ध्यानस्युं; ज्ञानी० जे तुज दीसे एह सहू पर हेय छे, ज्ञानी० ज्ञान सरूप अनुपसुं आतमध्येय छे । ज्ञानी० ५ ज्ञानी ज्ञेय ज एह अछे निज आतमा, ज्ञानी० तेह अज्ञानी अंध कीयो परतीतमा; ज्ञानी० निज रागी परत्यागी ज्ञानी निर्मलो, ज्ञानी० रज्जु नागभ्रम जेम देहममता दलो । ज्ञानी० ६ नागतणो भ्रम भागे सांकलि तिण कही, ज्ञानी० देहबुद्धिना त्यागथी चेतना लहलही; ज्ञानी० एक दोय बहु वचन रचनमे प्रभु नही, ज्ञानी० ज्ञानगम्य पर ज्योति त्रिगुणमें ए सहि । ज्ञानी० ७ जिणसुरे जगसुप्त जगे जागे सहू, ज्ञानी० निज संवेदन गम्य ए आतम गुण ग्रहू; ज्ञानी० रागद्वेषनो नाश हवे जिण ओलखे, ज्ञानी० नवी को मुज रिपु भीत न कोई मने लखे । ज्ञानी० ८ पूरवकृत भव रीत सुपन सम तेहने, ज्ञानी० शत्रु मित्र सम रीत गृहे ते निज मने; ज्ञानी० शुद्ध सीपर ज्योति सनातन जाणहूं, ज्ञानी० अक्षय आतम देखो आतम नाणहूं । ज्ञानी० ९ तजि बहिरातम राग भजो निज आतमा, ज्ञानी० निरमल जाणो नित्य जिसो परमातमा; ज्ञानी० पर संयोगे बंध, मोक्ष पर त्यागथी, ज्ञानी० बंध मोक्षगुणी वालो मन रागथी । ज्ञानी० १० ज्ञानी रहे अबंध कि ज्ञान प्रसादथी, ज्ञानी०
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