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________________ १७८ ध्यानशतकम संक्रमतो, रे, पवन जीव . पंडित कहे, बिक्रमतो रे, तेह पवन निरजीव हे । निरजीव पवने जगत मृतसम जीव पवने जीवतो, सुख दुख लाभालाभ फल पिण कहो इण विधि दीपतो; जे नाडि छोडे तिका रिक्ता पूर्ण संक्रम अवसरे पूर्णांग पगे जे धरे आगे सर्व कारिज तसु सरे । हां० सर्व० १४ विष घूम्या रे, जीवे चंद्र नाडी करी, रवि नाडे रे, तेह मरे विष विस्तरी; आकर्षण रे, पूरक थिर कुंभक धरे, उथान रे, रेचकथी योगी करे । ए करे योगी सरव कारिज पवनने परभावथी, जे करे नाडीतणो शोधन योग मारग दावथी; अति चपल ए छ, पवन दुरगम वसत भवने वासमे, तेलखी जोगी तजी आलस करत नाडि अभ्यासमे । हां० क० १५ [दुहा हवे नाडीरी शुद्धिता, कहुं ग्रंथ अनुसार; जसु अभ्यासे जाणिये, पवनतणो परकार । १ कला सहित इक बिंदुयुत, रेफाक्रांत हकार; नाभिकमलमे चिंतवे, अहँ अक्षर सार । २ शोझै तेण हकारथी, रविमग भासुरकांति; अग्निझालयुत अग्निकण, मालाथी आक्रांत । ३ चपल बीजसम धूमथी, रुंध्या दसदिसी खंड; इंद्र चंद्रने साध्य नहि, नभचारि ग्रह मंड । ४ शरदचंद्रसम धवलप्रभ, मंद मंद नभचार; झरे सुधा शिशिरनाडिमे, पूरे पवन उदार । ५ नाभिकमलमे आणिने, धरे पवन थिर देश; करे चित्तथी पवनने, निक्रम अने प्रवेश । ६ नाभिकमल हृदय कुज, आणे धारे वायु; नाडिशुद्धि करे तिहां, दहन मंडले आयु । ७ रवि नाडिथी निसरे, चंद्रे पेसे वायु; इम नाडीशुद्धि कीजतां, सहु इच्छा क्षय जाय । ८ Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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