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________________ ध्यान के स्वामी रौद्रध्यान रौद्रध्यान के स्वामियों का निर्देश करते हुए उसका अस्तित्व तत्वार्थसूत्र (९/३५), सर्वार्थसिद्धि (९/ ३५), तत्वार्थवार्तिक (९/३५), ध्यानशतक (२३), हरिवंशपुराण (५६-२६) और ज्ञानार्णव (३६, पृ. ३६९) आदि प्रायः सभी ग्रन्थों मे प्रथम पांच गुणस्थानों में निर्दिष्ट किया गया है । धर्मध्यान धर्मध्यान के स्वामियों के विषय में परस्पर काफी मतभेद रहा है । यथा-तत्त्वार्थधिगमभाष्य सम्मत सूत्रपाठ के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में अप्रमत्तसंयत, उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के उसका सद्भाव प्रगट किया गया है । यहां सूत्र में उपयुक्त 'अप्रमत्तसंयतस्य' इस एकवचनान्त पद से ऐसा प्रतीत होता है कि उससे केवल सातवें गुणस्थान को ही ग्रहण किया गया है । आगे उल्लिखित उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय शब्दों से ग्यारहवां और बारहवां ये दो गुणस्थान विवक्षित रहे दिखते हैं । ऐसी अवस्था में मध्य के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानों में कौन-सा ध्यान होता है, यह विचारणीय है । कारण यह कि इसे न तो मूल सूत्र में स्पष्ट किया गया है और न उसके भाष्य में भी । ध्यानशतक (६३) में भी लगभग यही कहा गया है । परन्तु वहां 'सव्वप्पमायरहिया मुणओ' ऐसा जो बहुवचनात्मक निर्देश किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार को समस्त प्रमादों से रहित-अप्रमत्तसंयत से लेकर सूक्ष्मसम्पराय पर्यन्त-सभी मुनि धर्मध्यान के स्वामी अभिप्रेत रहे हैं । आगे उपशान्तमोह और क्षीणमोह का पृथग्रूप में जो निर्देश किया गया है उससे सयोग और अयोग केवलियों की व्यावृत्ति हो जाती है । टीकाकार हरिभद्रसूरिने क्षीणमोह से क्षपक निर्ग्रन्थों और उपशान्तमोह से उपशमक निर्ग्रन्थों को ग्रहण किया है । इस प्रकार से भी पूवोक्त अपूर्वकरणादि उक्त तीन गुणस्थानों का ग्रहण हो जाता है । सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार तत्त्वार्थ सूत्र में धर्म्यध्यान के स्वामिविषयक कुछ उल्लेख नहीं किया गया, उसमें मात्र धर्म्यध्यान के भेदों का सूचक स्वरूप मात्र कहा गया है । वहां आर्त, रौद्र और शुक्ल इन तीन ध्यानों के स्वामियों का निर्देश करने पर भी धर्म्यध्यान के स्वामियों का निर्देश क्यों नहीं किया गया, यह विचारणीय है । हां, यह अवश्य है कि उस सूत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि में यह निर्देश किया गया है कि उक्त धर्म्यध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार के होता है । बृहद्र्व्यसंग्रह टीका में उसका अस्तित्व इन्हीं चार गुणस्थानों में स्वीकार किया गया है । इसी प्रकार अमितगतिश्रावकाचार (१५-१७) में भी उनका सद्भाव इन्हीं चार गुणस्थानों में बतलाया गया है । संयतासंयतेष्वेतच्चतुर्भेदं प्रजायते । प्रमत्तसंपतानां तु निदानरहितं त्रिधा ।। ३८-३९, पृ. २६० ।। १. आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । उपशान्त-क्षीणकषाययोश्च । त. सू. ९, ३७-३८ ।। २. आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्म्यम् । त. सू. ९-३६ । ३. तदविरत-देशविरत-प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति । स. सि. ९-३६ । ४. अतः परम् आर्त-रौद्रपरित्यागलक्षणमाज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयसंज्ञं चतुर्भेदभिन्नं तारतम्यवृद्धिक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टि-देशविरत प्रमत्तसंयताप्रमत्ताभिधानचतर्गणस्थानवर्तिजीवसम्भवम् । बृहद् द्र.टी. ४८, पृ. १७५ Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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