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ध्यानशतकम्,
ध्यान के स्वामी ध्यानशतक में तत्त्वार्थसूत्र के समान ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । इनमें से प्रत्येक के भी चार-चार भेद कहे गये हैं । आर्तध्यान
उनमें चारों प्रकार का आर्तध्यान छठे गुणस्थान तक सम्भव है, यह अभिप्राय तत्वार्थसूत्र' और ध्यानशतक (१८) दोनों में ही प्रगट किया गया है । __ आ. पूज्यपाद विरचित तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में प्रकृत सूत्र की स्पष्ट करते हुए यह विशेषता प्रगट की गई है कि अविरतों-असंयतसम्यग्दृष्टि तक-और देशविरतों के वह चारों प्रकार का
आर्तध्यान होता है, क्योंकि वे सब असंयम परिणाम से सहित होते हैं । परन्तु प्रमत्तसंयतों के प्रमाद के उदय की तीव्रता से कदाचित् निदान को छोडकर शेष तीन आर्तध्यान होते है ।
तत्त्वार्थवार्तिक में इस प्रसंग में इतना मात्र कहा गया है कि निदान को छोडकर शेष तीन आर्तध्यान प्रमाद के उदय की तीव्रता से प्रमत्तसंयतों के कदाचित् हुआ करते हैं । सूत्र की स्थिति को देखते हुए यह स्वयं प्रगट है कि प्रथम तीन आर्तध्यान प्रमत्तसंयतों तक कदाचित् होते हैं, परन्तु निदान प्रमत्तसंयतों के नहीं होता ।
मूलाचार, स्थानांग, समवायांग और औपपातिकसूत्र में किसी भी ध्यान के स्वामियों का उल्लेख नहीं किया गया है ।
हरिवंशपुराण में सामान्य से इतना मात्र निर्देश किया गया है कि वह आर्तध्यान छह गुणस्थान भूमिवाला है-छह गुणस्थानों में सम्भव है ।
ज्ञानार्णव में उसका हरिवंशपुराण के समान सामान्य से 'षड्गुणस्थानभूमिक' ऐसा निर्देश करके भी आगे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि संयतासंयतों में तो वह चारों प्रकार का आर्तध्यान होता है, परन्तु प्रमत्तसंयतों के वह निदान से रहित शेष तीन प्रकार का होता है ।
१. दुःखाद् बिभेषि नितरामभिवाच्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् । दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ।। आत्मानु. २. २. तदविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयतानाम् । त. सू. (दि.) ९-३४, श्वे. ९-३५ । ३. तत्राविरत-देशविरतानां चतुर्विधमार्तं भवति, असंयमपरिणामोपेतत्वात् ।
प्रमत्तसंयतानां तु निदानवय॑मन्यदार्तत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात् कदाचित् स्यात् । स. सि. ९-३४ ।। ४. कदाचित् प्राच्यमार्तध्यानत्रयं प्रमत्तानाम् ।
निदानं वर्जयित्वा अन्यदार्तत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात् कदाचित् प्रमत्तसंयतानां भवति । त. वा. ९,३४,१ । ५. अधिष्ठानं प्रमादोऽस्य तिर्यग्गतिफलस्य हि । परोक्षं मिश्रको भावः षड्गुणस्थानभूमिकम् ।।५६-१८ ।। ६. अपथ्यमपि पर्यन्ते रम्यमप्यग्रिमक्षणे । विद्ध्यसद्ध्यानमेतद्धि षड्गुणस्थानभूमिकम् ।।
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