SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८५ ग्रन्थ का विषय anarararararararakarararakarararakaratadaakarararararararararararararakaran ९ अनुप्रेक्षा-इसके प्रसंग में यह कहा गया है कि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ध्यानकाल को समाप्त हो जाने पर जब धर्मध्यान विनष्ट हो जाता है तब पूर्व में उस धर्मध्यान से जिसका चित्त सुसंस्कृत हो चुका है वह मुनि ध्यान के उपरत हो जाने पर भी सदा अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन में तत्पर होता है (६५) । १० लेश्या-धर्मध्यानी के क्रम से उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होनेवाली पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन प्रशस्त लेश्यायें हुआ करती हैं जो तीव्र, मन्द व मध्यम भेदों से युक्त होती हैं (६६) । ११ लिंग-धर्मध्यानी का परिचय किन हेतुओं के द्वारा होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि आगम, उपदेश, आज्ञा और निसर्ग से जो जिनोपदिष्ट पदार्थों का श्रद्धान होता हैं उससे तथा जिनदेव, साधु और उनके गुणों के कीर्तन आदि से उक्त धर्मध्यानी का बोध हो जाता है (६७-६८) । १२ फल-धर्मध्यान के फल का निर्देश यहां न करके लाघव की दृष्टि से उसका निर्देश आगे शुक्लध्यान के प्रकरण (गा. ९३) में किया गया है । इस प्रकार उपर्युक्त भावना आदि बारह अधिकारों के आश्रय से यहां (६८) धर्मध्यान की प्ररूपणा समाप्त हो जाती है । ४ शुक्लध्यान__ जिन पूर्वोक्त भावना आदि बारह अधिकारों के द्वारा धर्मध्यान की प्ररूपणा की गई है उन बारह अधिकारों की अपेक्षा प्रस्तुत शुक्लध्यान की प्ररूपणा में भी रही है । उनमें से भावना, देश, काल और आसन विशेष इन चार अधिकारों में उसकी धर्मध्यान से कुछ विशेषता नहीं रही है । इसलिए उनकी प्ररूपणा न करके यहां शेष आवश्यक अधिकारों से ही शुक्लध्यान का निरूपण किया गया है । यथा ५ आलम्बन-क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति ये यहां शुक्लध्यान के आलम्बन निर्दिष्ट किये गये है (६९) । ६ क्रम-पृथक्त्ववितर्क सविचार, एकत्ववितर्क अविचार, सूक्ष्मक्रियानिवर्ति और व्युच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति के भेद से शुक्लध्यान चार प्रकार का है । इनमें प्रथम दो शुक्लध्यानों के क्रम का निरूपण धर्मध्यान के प्रकरण (४४) में किया जा चूका है । इसलिए उन्हें छोडकर अन्तिम दो शुक्लध्यानों के क्रम का विचार करते हुए यहां यह कहा गया है कि मन का विषय जो तीनों लोक है उसका छद्मस्थ ध्याता क्रम से संक्षेप (संकोच) करता हुआ उस मन को परमाणु में स्थापित करता है और अतिशय स्थिरतापूर्वक ध्यान करता है । तत्पश्चात् केवली जिन उसे परमाणु से भी हटाकर उस मन से सर्वथा रहित होते हुए अन्तिम दो शुक्लध्यानों के ध्याता हो जाते हैं । वह किस प्रकार से उस मन के विषय का संक्षेप कर उसे परमाणु में स्थापित करता है तथा उससे भी फिर उसे किस प्रकार से हटाता है, इसे आगे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार समस्त शरीर में व्याप्त विष को मंत्र के द्वारा डंक में रोक दिया जाता है और तत्पश्चात् उसे अतिशय प्रधान मंत्र के योग से उस डंक स्थान से भी हटा दिया जाता है उसी प्रकार तीनों लोकरूप शरीर में व्याप्त मनरूप विष को ध्यानरूप मंत्र के बल से युक्त ध्याता डंकस्थान के समान Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy