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ध्यानशतकम्, Hararararararararararararararararareranarasatarararakarsankrantaramarate परमाणु में रोक देता है और तत्पश्चात् जिनरूप वैद्य (मांत्रिक) उसे उस परमाणु से भी हटा हेता है । आगे इसी बात को अग्नि और जल के दृष्टान्तों द्वारा भी पुष्ट किया गया है । इस प्रकार मन का निरोध हो जाने पर फिर क्रम से वचनयोग और काययोग का भी निरोध करके वह शैल के समान स्थिर होता हुआ शैलेशी केवली हो जाता है (७०-७६) ।
७-ध्यातव्य-शुक्लध्यान के ध्येय का विचार करते हुए यहां कहा गया है कि पृथक्त्ववितर्क सविचार नामक प्रथम शुक्लध्यान में ध्याता पूर्वगत श्रुत के अनुसार अनेक नयों के आश्रय से आत्मादि किसी एक वस्तुगत उत्पाद, स्थिति और भंग (व्यय) रूप पर्यायों का विचार करता है । इस ध्यान में चूंकि अर्थ से अर्थान्तर, व्यंजन (शब्द) से व्यंजनान्तर और विवक्षित योग से योगान्तर में संक्रमण होता है; इसलिए उसे सविचार कहा गया है । वह वीतराग को हुआ करता है (७७-७८)
एकत्व वितर्क अविचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान में ध्याता उपर्युक्त उत्पादादि पर्यायों में से किसी एक ही पर्याय का विचार करता है । इस ध्यान में चित्त वायु के संचार से रहित दीपक के समान स्थिर हो जाता है । इस ध्यान में चूंकि अर्थ से अर्थान्तर आदि का संक्रमण नहीं होता, इसलिए उसे अविचार कहा गया है । प्रथम शुक्लध्यान को समान इसमें भी श्रुत का आलम्बन रहता है (७९-८०) । ___ जो योगों का कुछ निरोध कर चुका है तथा जिसके उच्छ्वास-निःश्वास रूप सूक्ष्म काय की क्रिया ही शेष रही है ऐसे केवली को जब मुक्ति की प्राप्ति में अन्तर्मुहूर्त मात्र ही शेष रहता है तब उनके सूक्ष्मक्रियानिवर्ति नाम का तीसरा शुक्लध्यान होता है (८१)
शैल के समान अचल होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुए उन्ही केवली के व्युच्छिन्नक्रिया प्रतिपाति नाम का चौथा परम शुक्लध्यान होता है (८२)
ये चारों शुक्लध्यान योग की अपेक्षा किनके होते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि प्रथम शुक्लध्यान एक योग अथवा सब योगों में होता है, दूसरा शुक्लध्यान तीनों योगों में से किसी एक योग में होता है, तीसरा शुक्लध्यान काययोग में होता है; तथा चौथा शुक्लध्यान योगों से रहित हो जाने पर अयोगी जिन को होता है (८३) ।
यहां यह आशंका हो सकती थी कि केवली को जब मन का अभाव हो चुका है तब उनके तीसरा और चौथा शुक्लध्यान कैसे सम्भव है, क्योंकि मनविशेष का नाम ही तो ध्यान है ? इस आशंका के समाधान स्वरूप आगे यह कहा गया है कि जिस प्रकार छद्मस्थ के अतिशय निश्चल मन को ध्यान कहा जाता है उसी प्रकार केवली के अतिशय निश्चल काय को ध्यान कहा जाता है, कारण यह कि योग की अपेक्षा उन दोनों में कोई भेद नहीं है । इस पर पुन: यह आशंका हो सकती थी कि अयोग केवली को तो वह (काययोग) भी नहीं रहा, फिर उनके व्युच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति नाम का चौथा शुक्लध्यान कैसे माना जा सकता है ? इसके-परिहार स्वरूप आगे यह कहा गया है कि पूर्वप्रयोग, कर्मनिर्जरा का सद्भाव,
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