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________________ ८४ ध्यानशतकम्, સસ સસસ સસર, में यदि उसे बुद्धि की मन्दता से, यथार्थ वस्तु स्वरूप के प्रतिपादक आचार्यों के अभाव से, जानने योग्य धर्मास्तिकाय आदि की गम्भीरता (दुःखबोधता) से, ज्ञानावरण के उदय से तथा हेतु और उदाहरण के असम्भव होने से यदि जिज्ञासित पदार्थ का ठीक से बोध नहीं होता है तो बुद्धिमान् धर्मध्यानी को यह विचार करना चाहिए कि सर्वज्ञ का मत-वचन (जिनाज्ञा) असत्य नहीं हो सकता । कारण यह कि प्रत्युपकार की अपेक्षा न रखनेवाले जिन भगवान् सर्वज्ञ होकर राग, द्वेष और मोह को जीत चुके हैं-उनसे सर्वथा रहित हो चुके है; अत एव वे वस्तुस्वरूप का अन्यथा (विपरीत) कथन नहीं कर सकते । इस प्रकार से वह प्राणिमात्र के लिए हितकर जिनवचन (जिनाज्ञा) के विषय में विचार करता है (४५-४९) जो प्राणी राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में प्रवर्तमान हैं वे इस लोक और परलोक दोनों ही लोकों में अनेक प्रकार के अपायों (दुःखों) को प्राप्त होनेवाले हैं । धर्मध्यानी वर्जनीय अकार्य का परित्याग करता हुआ उक्त अपायों के विषय में विचार किया करता है (५०) । विपाक का अर्थ कर्म का उदय है । मन, वचन व काय योगों से तथा मिथ्यादर्शनादि रूप जीवगुणों के प्रभाव से उत्पन्न होनेवाला कर्म का विपाक प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाव के भेद से भेद को प्राप्त है । इनमें प्रत्येक शुभ और अशुभ (पुण्य-पाप) इन दो में विभक्त है; इत्यादि प्रकार से धर्मध्यानी कर्म के विपाक के विषय में विचार किया करता है (५१) । ध्यातव्य के चतुर्थ भेद (संस्थान) का निरूपण करते हुए यहां यह कहा गया है कि धर्मध्यानी द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, आसन (आधार), भेद, प्रभाण और उत्पादादि पर्यायों का विचार करता हुआ धर्मादि पांच अस्तिकाय स्वरूप लोक की स्थिति का भी विचार करता है । इसके अतिरिक्त जीव जो उपयोग स्वरूप, अनादिनिधन, शरीर से भिन्न, अमूर्तिक और अपने कर्म का कर्ता व भोक्ता है उसका विचार करता है तथा अपने ही कर्म के वश जो उसका संसार में परिभ्रमण हो रहा है उससे उसका किस प्रकार से उद्धार हो सकता है, इत्यादि का भी गम्भीर विचार करता है। यहां संसार को समुद्र की उपमा देकर दोनों की समानता का अच्छा चित्रण किया गया है (५२-६२) ।। ८ ध्याता-ध्याता के प्रसंग में कहा गया है कि प्रकृत धर्मध्यान के ध्याता सब प्रमादों से रहित-अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती-मुनि और क्षीणमोह (क्षपक निर्ग्रन्थ) एवं उपशान्तमोह (उपशमक निर्ग्रन्थ) होते है (६३) । इस धर्मध्यान के ही प्रसंग में लाघव की अपेक्षा रखकर शुक्लध्यान के भी ध्याता का विचार करते हुए यह कहा गया है कि जो ये धर्मध्यान के ध्याता हैं वे ही अतिशय प्रशस्त संहनन से युक्त होते हुए पृथक्त्ववितर्क सविचार ओर एकत्ववितर्क अविचार इन दो शुक्लध्यानों के भी ध्याता होते हैं । विशेष इतना है कि चौदह पूर्वो के पारगामी होते है । शेष दो शुक्लध्यानों के-सूक्ष्म क्रियानिवति और व्युच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति के-ध्याता क्रम से सयोगकेवली और अयोगकेवली होते हैं (६४) । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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