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________________ ८३ ग्रन्थ का विषय arakarataarararstaratatatatatatstararamatarararatatakarataranataratarakarate बलिष्ठ हैं, ज्ञानादि भावनाओं के व्यापार में अभ्यस्त हैं, तथा जिनका मन अतिशय स्थिरता को प्राप्त कर चुका है, उनके लिए उक्त प्रकार से स्थान विशेष का कोई नियम नहीं हैं - वे जनों से संकीर्ण गांव में और निर्जन वन में भी निर्बाध रूप से ध्यान कर सकते है । ध्याता के लिए वही स्थान उपयुक्त माना गया है जहां मन, वचन एवं काय योगों को समाधान प्राप्त होता है तथा जो प्राणिहिंसादि से विरहित होता है (३५-३७) । ३ काल-स्थान के विषय में जो कुछ कहा गया है वही काल के विषय में भी समझना चाहिए । अर्थात् ध्यान के लिए काल भी वही उपयोगी होता है जिसमें योगों को उत्तम समाधान प्राप्त होता है। इसके सिवाय काल के विषय में ध्याता के लिए दिन व रात्रि आदि का कोई विशेष नियम नहीं निर्दिष्ट किया गया (३८) । ४ आसन विशेष-अभ्यास में आयी हुई जो भी आसन आदि रूप शरीर की अवस्था ध्यान में बाधक नहीं होती है उसमें स्थित रहते हुए कायोत्सर्ग, पद्मासन अथवा वीरासन आदि से ध्यान करना योग्य है । कारण यह कि देश, काल और आसन आदि रूप सभी अवस्थाओं में वर्तमान होते हुए मुनिजनों ने पाप को शान्त करके उत्कृष्ट केवलज्ञान आदि को प्राप्त किया है। यही कारण है जो आगम में ध्यान के योग्य देश, काल और आसन विशेष का कोई नियम नहीं निर्दिष्ट किया गया । किन्तु वहां इतना मात्र कहा गया है कि जिस प्रकार से भी ध्यान के समय योगों को समाधान प्राप्त होता है उसी प्रकार का प्रयत्न करना चाहिए (३९-४१) । ५ आलम्बन-वाचना, प्रच्छना (प्रश्न), परावर्तना और अनुचिंत्ता तथा सामायिक आदि सद्धर्मावश्यक ये ध्यान के आलम्बन कहे गये हैं । जिस प्रकार किसी बलवती रस्सी आदि का सहारा लेकर मनुष्य विषम (दुर्गम) स्थान पर पहुंच जाता है उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि-पूर्वोक्त वाचना आदि का-आश्रय लेकर उत्तम ध्यान पर आरूढ होता है (४२-४३) । ६ क्रम-क्रम का विचार करते हुए यहां लाघव पर दृष्टि रखकर धर्मध्यान के साथ शुक्लध्यान के भी क्रम का निरूपण कर दिया गया है । उसके प्रसंग में यह कहा गया है कि केवलियों के मुक्ति की प्राप्ति में जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है तब वे जो क्रम से मनयोग आदि का निग्रह करते हैं, यही शुक्लध्यान की प्रतिपत्ति का क्रम है । शेष धर्मध्यानियों के ध्यान की प्रतिपत्ति का क्रम समाधि के अनुसार-जैसे भी स्वस्थता प्राप्त होती है तदनुसार-जानना चाहिए (४४) । ७ ध्यातव्य-ध्यातव्य का अर्थ ध्यान के योग्य विषय (ध्येय) है । वह आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान के भेद से चार प्रकार का है। इनके चिन्तन से क्रमशः धर्मध्यान के आज्ञाविचय, अपायविषय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद हो जाते है । नय, भंग, प्रमाण और गम (चतुर्विशतिदण्डक आदि) से गम्भीर ऐसे कुछ सूक्ष्म पदार्थ हैं जिनका परिज्ञान मन्दबुद्धि जनों को नहीं हो पाता । ऐसी स्थिति Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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