________________
८२
ध्यानशतकम्, Parakararararararararararanatakaratmatakarakararararareraturatatatatakarature नामक चौथे रोद्रध्यान से वशीभूत हुआ जीव विषयोपभोग के लिए उसके साधनभूत धन के संरक्षण में निरन्तर विचारमग्न रहा करता है । नरक गति का कारणभूत यह चार प्रकार का रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक सम्भव है । यहां आर्तध्यानी के समान रौद्रध्यानी के भी यथासम्भव लेश्याओं और उसके लिगों आदि का निर्देश किया गया है (१६-२७) । ३ धर्मध्यान
धर्मध्यान की प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम यहां यह सूचना की गई है कि मुनि को १ ध्यान की भावनाओं, २ देश, ३ काल, ४ आसन विशेष, ५ आलम्बन, ६ क्रम, ७ ध्यातव्य, ८ ध्याता, ९ अनुप्रेक्षा, १० लेश्या, ११ लिंग और १२ फल; इनको जानकर धर्मध्यान का चिन्तन करना चाहिए । तत्पश्चात् धर्मध्यान का अभ्यास कर लेने पर शुक्लध्यान का ध्यान करना चाहिए (२८-२९)। इस प्रकार की सूचना करके आगे इन्हीं १२ प्रकरणों के आश्रय से क्रमशः प्रकृत धर्मध्यान का विवेचन किया गया है ।
१-भावना-ध्यान के पूर्व जिसने भावनाओं के द्वारा अथवा उनके विषय में अभ्यास कर लिया है वह ध्यानविषयक योग्यता को प्राप्त कर लेता है । वे भावनायें ये हैं - ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य । इनमें ज्ञान के आसेवन रूप अभ्यास का नाम ज्ञानभावना है । इसके आश्रय से ध्याता का मन अशुभ व्यापार को छोड शुभ में स्थिर होता है । साथ ही उसके द्वारा तत्त्व-अतत्त्व का रहस्य जान लेने से ध्याता स्थिरबुद्धि होकर ध्यान में लीन हो जाता है । ___ तत्त्वार्थ श्रद्धान का नाम दर्शन है । शंका-कांक्षा आदि पांच दोषों से रहित एवं प्रशम व स्थैर्य आदि गुणों से युक्त होकर उस दर्शन के आराधन को दर्शनभावना कहते हैं । दर्शन से विशुद्ध हो जाने पर धर्मध्यान का ध्याता ध्यान के विषय में कभी दिग्भ्रान्ता नहीं होता ।
समस्त सावद्ययोग की निवृत्ति रूप क्रिया का नाम चारित्र और उसके अभ्यास का नाम चारित्रभावना है । इस चारित्र भावना से नवीन कर्मों के ग्रहण के अभावरूप संवर, पूर्वसंचित कर्म की निर्जरा, सातावेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियों का ग्रहण और ध्यान; ये विना किसी प्रकार के प्रयत्न के-अनायासही प्राप्त होते हैं ।
संसार के स्वभाव को जानकर विषयासक्ति से रहित होना यही वैराग्यभावना है । इस वैराग्यभावना से जिसका मन सुवासित हो जाता है वह इह-परलोकादि भयों से रहित होकर आशा से - इहलोक
और परलोक विषयक सुखाभिलाषा से भी रहित हो जाने के कारण ध्यान में अतिशय स्थिर हो जाता है (३०-३४) ।
२ देश-यह एक साधारण नियम है कि मुनि का स्थान सदा ही युवतिजन, पशु, नपुंसक और कुशील (जुवारी आदि) जनों से रहित होना चाहिए । ऐसी स्थिति में ध्यान के समय तो उसका वह स्थान विशेषरूप से निर्जन (एकान्त) कहा गया है । किन्तु इतना विशेष है कि जो संहनन व धैर्य से
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org