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ग्रन्थ का विषय satarastakalatakaratasasaratarawasakarakatakasakarakarakakakarate परिपालन अथवा तपश्चरण आदि कुछ अनुष्ठान किया गया है तो उसके फलस्वरूप इन्द्र व चक्रवर्ती आदि की विभूतिविषयक प्रार्थना करना, इसे चौथे आर्तध्यान का लक्षण कहा गया है । आगामी काल में भोगाकांक्षा रूप इस प्रकार का निदान अज्ञानी जन को ही हुआ करता है । कारण यह कि जिस अमूल्य संयम अथवा तपश्चरण के आश्रय से मुक्ति प्राप्त हो सकती है उसे इस प्रकार से भोगों की प्राप्ति में गमा देना, इसे अज्ञानता के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? उपर्युक्त चार प्रकार की इस संक्लेश रूप परिणति को यहां आर्तध्यान कहा गया है (६-९)। राग-द्वेष से रहित साधु वस्तु स्वरूप का विचार करता है, इसलिए रोगादि जनित वेदना को होने पर वह उसे अपने पूर्वोपार्जित कर्म के उदय से उत्पन्न हुई जानकर शुभ परिणाम के साथ सहन करता है । ऐसा विवेकी साधु उत्तम आलम्बन लेकर निर्मल परिणाम के साथ उसका पाप से सर्वथा रहित (पूर्णतया निर्दोष) अथवा अल्प पापं से युक्त होता हुआ प्रतीकार करता है, फिर भी निर्दोष उपाय के द्वारा चिकित्सादि रूप प्रतीकार करने के कारण उसको आर्तध्यान नहीं होता, किन्तु धर्मध्यान ही होता है । इसी प्रकार वह सांसारिक दुःखों के प्रतीकार स्वरूप जो तप-संयम का अनुष्ठान करता है वह इन्द्रादि पदों की प्राप्ति की अभिलाषा रूप निदान से रहित होता है, इसीलिए इसे भी आर्तध्यान नहीं माना गया, किन्तु निदान रहित धर्मध्यान ही माना गया है । संसार के कारणभूत जो राग, द्वेष और मोह हैं वे आर्तध्यान में रहते हैं। इसीलिए उसे संसार रूप वृक्ष का मूल कहा गया है (१०-१३) । ___ आर्तध्यानी को कापोत, नील और कृष्ण ये तीन अशुभ लेश्यायें होती है । आर्तध्यानी की पहिचान इष्टवियोग एवं अनिष्ट संयोगादि के निमित्त के होनेवाले आक्रन्दन, शोचन, परिदेवन एवं ताडन आदि हेतुओं से हुआ करती है । वह अपने द्वारा किये गये भले-बुरे कर्मों की प्रशंसा करता है तथा धन-सम्पत्ति के उपार्जन में उद्यत रहता हुआ विषयासक्त होकर धर्म की उपेक्षा करता है (१४-१७) । __वह आर्तध्यान व्रतों से रहित मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि एवं अविरतसम्यग्दृष्टि तथा संयतासंयत व प्रमादयुक्त संयत जीवों को होता है (१८) । २ रौद्रध्यान
हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुन्धी के भेद से रौद्रध्यान चार प्रकार का है । क्रोध के वशीभूत होकर एकेन्द्रियादि जीवों के ताडने, नासिका आदि के छेदने, रस्सी आदि से बांधने एवं प्राणविघात करने आदि का जो निरन्तर चिन्तन होता है; यह हिंसानुबन्धी नामक प्रथम रौद्रध्यान का लक्षण है । परनिन्दाजनक, असभ्य एवं प्राणिप्राण वियोजक आदि अनेक प्रकार के असत्य वचन बोलने का निरन्तर चिन्तन करना; इसे मृषानुबन्धी नामक दूसरा रौद्रध्यान माना गया है । जिसका अन्तःकरण पाप से कलुषित रहता है तथा जो मायापूर्ण व्यवहार से दूसरों के ठगने में उद्यत रहता है उसके यह रौद्रध्यान होता है । जिसका चित्त क्रोध व लोभ के वशीभूत होकर दूसरों की धन-सम्पत्ति आदि के अपहरण में संलग्न रहता है उसके स्तेयानुबन्धी नाम का तीसरा रौद्रध्यान समझना चाहिए । विषयसंरक्षणानुबन्धी
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