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________________ ५० हुए। चूँ कि विशेषावश्यकभाष्य और उनकी स्वोपज्ञटीका उनकी अन्तिम कृति के रूप में माने जाते हैं, अतः इतना सुनिश्चित है कि 'झाणज्झयण' की रचना ईस्वी सन् की ७वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही कभी हुई है । यह निश्चित है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण शक संवत् ५३१ अर्थात् ईस्वी सन् ६०९ के पूर्व हुए हैं, क्योंकि शक संवत् ५३१ में लिखी विशेषावश्यकभाष्य ताडपत्रीय प्रति के आधार पर प्रतिलिपि की गई अन्य ताडपत्रीय प्रति आज भी जैसलमेर भंडार में उपलब्ध है। इस प्रकार विशेषावश्यकभाष्य की रचना शक संवत् ५३१ अर्थात् ईस्वी सन् ६०९ से पूर्व ही हुई । विशेषावश्यकभाष्य का रचनाकाल सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के बाद नहीं ले जाया जा सकता है । अतः ध्यानशतक की रचना ईस्वी सन् की छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और सातवीं शती प्रथम दशक के पूर्व ही माननी होगी । ध्यानशतकम् पं. दलसुखभाई ने इसे नियुक्तिकार भद्रबाहु की रचना होने की कल्पना की है । यद्यपि हम पूर्व में ही कल्पना को निरस्त कर चुके हैं फिर भी यदि हम नियुक्तियों का रचनाकाल ईसा की दूसरी या तीसरी शताब्दी मानते हैं तो प्रस्तुत कृति के रचनाकाल की पूर्व सीमा ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी और उत्तर सीमा ईस्वी सन् की छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है । पं. बालचन्द्र जी ने अपनी प्रस्तावना में ध्यानशतक के आधार रूप में स्थानांगसूत्र आदि सभी अर्द्धमागधी आगमों को वलभी वाचना अर्थात् ईसा की ५वीं शताब्दी की रचना माना है, किन्तु यह उनकी भ्रांति ही । वलभी वाचना वस्तुतः अर्द्धमागधी आगमों का रचनाकाल न होकर उनकी अंतिम वाचना का अर्थात् उनका सम्पादन काल है । उनकी रचना तो उसके पूर्व ही हो चुकी थी । स्थानांगसूत्र को प्रस्तुत ध्यानशतक का आधार ग्रन्थ माना जा सकता है । उसकी रचना उसके काफी पूर्व ही हो चुकी थी, चूँकी स्थानांगसूत्र एक संकलनात्मक ग्रन्थ है, उसमें नौ गण आदि के जो उल्लेख हैं वे भी उसे ईस्वी सन् की प्रथम- द्वितीय शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नहीं करते हैं । स्थानांगसूत्र में आयारदसा आदि दस दशा-ग्रन्थों नाम और उनकी विषय-वस्तु के जो उल्लेख हैं वे समवायांगसूत्र और नन्दीसूत्र में वर्णित उनकी विषयवस्तु से काफी प्राचीन हैं, वे नागार्जुनीय (तीसरी शती) और देवर्द्धिगणि की वाचना के पूर्व के हैं और ध्यानाध्ययन में ध्यान के उसी प्राचीन रूप का अनुसरण देखा जाता है । यदि झाणज्झयण अपरनाम ध्यानशतक का आधार स्थानांगसूत्र रहा हो तो भी वह ईस्वी सन् की दूसरी शती से पूर्ववर्ती तथा पाँचवींछठी शती से परवर्ती नहीं है, क्योंकि विक्रम की आठवीं शताब्दी और तदनुसार ईस्वी सन् सातवीं शती के उत्तरार्द्ध में हुए हरिभद्र स्वयं इसे न केवल उद्धत कर रहे हैं, अपितु आवश्यकवृत्ति के अन्तर्गत उस पर टीका भी लिख रहे हैं । अतः झाणज्झयण अपरनाम ध्यानशतक का रचनाकाल ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और ईस्वी सन् की सातवीं शती के प्रथम दशक के पूर्व हो सकता है । फिर भी मेरी दृष्टि में इसे जिनभद्र क्षमाश्रमण की रचना होने के कारण ईस्वी सन् की छठी शती के अन्तिम चरण की रचना मानना अधिक उपयुक्त है । x x x Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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