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________________ ગ્રન્થકાર અને રચનાકાળ ४९ कर दिया है । मात्र यही नहीं दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द, मूलाचार के कर्ता वट्टकेर आदि ने भी अपनी कृतियों में कहीं अपने नाम का निर्देश नहीं किया है, ऐसी स्थिति में क्या समयसार, मूलाचार आदि के कर्तृत्व पर भी संदेह किया जायेगा ? सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह सम्पूर्ण ग्रन्थ विक्रम की आठवीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्र के समक्ष उपस्थित था । जिनभद्रगणि का काल लगभग छठी शताब्दी माना जा सकता है । जिनभद्र के पश्चात् और हरिभद्र के पूर्व जो प्रमुख श्वेताम्बर आचार्य हुए हैं उनमें तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार सिद्धसेनगणि क्षमाश्रमण और चूर्णिकार जिनदासगणि को छोडकर ऐसे कोई अन्य समर्थ आचार्यों के नाम हमारे समक्ष नहीं हैं, जिन्हें इस ग्रन्थ का कर्ता बताया जा सके । ये दोनों भी इसके कर्ता नहीं है यह भी सुस्पष्ट है। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि ध्यानशतक के रचनाकार श्वेताम्बर के आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ही है । मेरी दृष्टि में इसे नियुक्तिकार की रचना मानने में भी कठिनाई है कि आवश्यकनियुक्ति में प्रतिक्रमणनिर्यक्ति की और कायोत्सर्गनियुक्ति की जो गाथाएँ हैं, उनसे ध्यानाध्ययन की एक भी गाथा नहीं मिलती है । वस्तुतः यह ग्रन्थ नियुक्ति के बाद का और जिनदासगणि महत्तर की चूर्णियों के पूर्व भाष्यकाल की रचना है, अतः इसके कर्ता विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि ही होना चाहिए । जहाँ तक झाणज्झयण को नियुक्तिकार भद्रबाहु की रचना मानने का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में हमारे पास में कोई भी ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है, केवल यह मान करके कि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यनियुक्ति की व्याख्या में इसे समाहित किया है, मात्र इसी आधार पर इसे नियुक्तिकार की रचना नहीं माना जा सकता है । क्योंकि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में अन्य-अन्य ग्रन्थों के भी संदर्भ दिये है और जिनके कर्ता निश्चित ही नियुक्तिकार नहीं हैं । अतः आचार्य हरिभद्र की टीका में उद्धृत होने मात्र से इसे नियुक्तिकार की रचना मानना संभव नहीं है । नियुक्तियों के बाद में भाष्यों और चूर्णियों का काल आता है और प्रस्तुत कृति हरिभद्र के पूर्व होने से उसे भाष्यकार की रचना मानना ही उपयुक्त है, क्योंकि चूर्णियाँ तो प्राकृत गद्य में लिखित हैं, अतः उनकी शैली भिन्न है । शैली, भाषा आदि की अपेक्षा से इसे विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि की कृति मान लेना ही संभव है । रचनाकाल : जहाँ तक प्रस्तुत कृति के रचनाकाल का प्रश्न है यदि हम इसे जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की रचना मानते हैं तो उनका जो काल है वही इस कृति का रचनाकाल होगा । विचारश्रेणी ग्रन्थ के अनुसार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का स्वर्गवास वीर संवत् ११२० में हुआ । तदनुसार उनका स्वर्गवास विक्रम संवत ६५० या ईस्वी सन् ५९३ माना जा सकता है । धर्मसागरी पट्टावली के अनुसार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का स्वर्गवास काल वि.सं. ७०५ के लगभग माना जाता है । तदनुसार वे ईस्वी सन् ६४९ में स्वर्गस्थ Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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