SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ ध्यानशतकम् takarakarskarataarakatakarakarararakatarrakaratalatakararataratararakatarata नियुक्तिकार की कृति मानने में विशेष बाधा नहीं है । पं. बालचन्द्र जी यह 'झाणज्झयण' जिनभद्रगणि की कृति नहीं है इस हेतु पंडित दलसुखभाई के तर्क का अपने पक्ष में उपयोग करते हैं, और उनके इस निर्णय को कि यह ग्रन्थ नियुक्तिकार की कृति है, को स्वीकार नहीं करते हैं और न ही वे इसका तार्किक खण्डन ही करते हैं । संभवतः उन्हें इसमें यही कठिनाई प्रतीत होती है कि चाहे इसे नियुक्तिकार की कृति माने या भाष्यकार की कृति मानें दोनों ही स्थितियों में यह श्वेताम्बर परम्परा की कृति ही उठरती है । वे किसी अन्य आचार्य की कृति मानते हैं, किन्तु वे यह भी सिद्ध नहीं कर पाते हैं कि यह किस अन्य आचार्य की कृति है । केवल इस आधार पर कि आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में और आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने अपने टिप्पण में इसे जिनभद्रगणि की कृति नहीं बताया है - इसे जिनभद्र की कृति मानने से इंकार कर देना समुचित नहीं है । क्योंकि दोनों ने उनके सामने जो मूलपाठ था उसी पर टीका या टिप्पण लिखे । जब मूल में नामोल्लेख वाली गाथा उनके समक्ष थी ही नहीं तो वे किस आधार पर कर्ता के नाम का उल्लेख करते और जब जिनभद्रगणि की अपनी किसी भी कृति में अपना नाम देने की प्रवृत्ति ही नहीं रही तो फिर इस कृति में वे अपना नाम कैसे देते ? पण्डित बालचन्द्रजी ने इस ग्रन्थ को जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की कृति मानने से जो इंकार किया है, उसका सम्भवतः मुख्य कारण यही है कि वे इसे किसी श्वेताम्बर आचार्य की कृति मानना नहीं चाहते हैं, किन्तु उनका यह मन्तव्य इसलिए सिद्ध नहीं हो सकता कि कृति मूलतः अर्द्धमागधी भाषा में ही लिखी गई है । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के पूर्ववर्ती एवं परवर्ती जो भी दिगम्बर आचार्य हुए हैं उन सबने शैरसेनी प्राकृत में ही अपने ग्रन्थ लिखे हैं, जब कि यह ग्रन्थ पूर्णतः अर्द्धमागधी में ही पाया जाता है । इस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव भी प्रायः अधिक नहीं देखा जाता है । वैसे अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में जो भी लेखन हुआ है वह प्रमुखतः श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा ही हुआ है । अतः इतना सुनिश्चित है कि यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में ही निर्मित हुआ है । पुनः आचार्य हरिभद्र ने इस पर जो टीका लिखी है, वह भी मूलतः श्वेताम्बर परम्परा की है । अतः ग्रन्थकर्ता के रूप में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आती है। प्राचीन जैन आचार्यों की यह प्रवृत्ति रही है कि वे अपनी किसी रचना में अपने नाम का उल्लेख नहीं करते थे, यही कारण है कि विशेषावश्यकभाष्य, जीतकल्पभाष्य, विशेषणवती आदि ग्रन्थोमें जिनभद्रगणि ने भी कल भी अपने नामका उल्लेख नही किया है, किन्तु इस आधार पर विशेषावश्यकभाष्य, जीतकल्पभाष्य, विशेषणवती आदि को किसी अन्य की कृति नहीं माना जा सकता है । इससे तो यही सिद्ध होता है कि ध्यानशतक के कर्ता जिनभद्रागणि क्षमाश्रमण ही हैं और कर्ता के नाम के सम्बन्ध में किसी प्रकार की भ्रांति न हो इसलिए परवर्तीकाल में किसी ने १०६वीं गाथा जोडकर कर्ता का नाम निर्देश ___Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy