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ગ્રન્થકાર અને રચનાકાળ aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaarararararare 'ध्यानाध्ययन' की अन्यकर्तृकता सिद्ध नहीं होती है । हम उनसे सहमत होकर यह मान सकते हैं कि यह अंतिम गाथा बाद में किसी के द्वारा जोडी गई है । किन्तु उनकी इस बात से प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता जिनभद्रगणि नहीं है यह फलित नहीं होता है । क्योंकि इस सम्बन्ध में अन्य अनेक साधक प्रमाण भी उपस्थित हैं । यह भी सत्य है कि इस १०६वीं गाथा में यह कहा गया है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के द्वारा यह ग्रन्थ रचा गया । यह कथन स्वयं लेखक के द्वारा तो नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यदि लेखक स्वयं इस गाथा के रचयिता होते तो वे यह लिखते 'मुझ जिनभद्रगणि द्वारा रचा गया' । अतः इस गाथा का अन्यकर्तृक और प्रक्षिप्त होना तो सिद्ध है, किन्तु पंडित बालचन्द्रजी का यह कहना कि यह गाथा अससम्बद्ध ही है उचित नहीं हैं, क्योंकि प्रस्तुत गाथा में ग्रन्थ की गाथा संख्या का उल्लेख करते हुए ही ग्रन्थकार का उल्लेख हुआ है । अतः यह गाथा असम्बद्ध नहीं कही जा सकती । अब प्रश्न यह उठता है कि यह गाथा प्रस्तुत कृति में कब जोडी गई ? वस्तुतः यह गाथा प्रस्तुत कृति में हरिभद्र की टीका के पश्चात् ही जोडी गई होगी और यही कारण हो सकता है कि हरिभद्र ने इस गाथा पर टीका न लिखी हो । दूसरे यदि हरिभद्र स्वयं इस गाथा को जोडते तो मूल गाथाओं के बाद इस गाथा को अवश्य देते, किन्तु उनकी टीका में इस गाथा की अनुपलब्धि यही सिद्ध करती है कि यह गाथा अवश्य की हरिभद्रीय टीका के बाद ही जुडी होगी । किन्तु हरिभद्रीय टीका के पश्चात् मलधारी हेमचन्द्र द्वारा जो टिप्पण लिखे गये उनमें भी इसके कर्ता के सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं किया गया । इससे भी यह सिद्ध होता है कि यह गाथा मलधारी हेमचन्द्र के टिप्पण के बाद ही प्रक्षिप्त हुई होगी अर्थात् ईसा को बारहवीं शती के पश्चात् ही प्रक्षिप्त हुई होगी ।
यह सत्य है कि पं. दलसुखभाई मालवणिया ने 'गणधरवाद' की प्रस्तावना में भी ध्यानशतक/ झाणज्झयण के जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित होने में संदेह व्यक्त किया है । उनके संदेह का आधार भी हरिभद्रीय टीका और मलधारी हेमचन्द्र के टिप्पणी में कर्ता के नाम का अनुल्लेख ही है । पं. बालचन्द्रजी, पं. दलसुखभाई के इस संदेह से तो सहमत होते हैं, परन्तु पं. दलसुखभाई के इस निर्णय को स्वीकार क्यों नहीं करते हैं कि यह आवश्यकनियुक्तिकार की कृति है । पं. दलसुखभाई ‘गणधरवाद' की भूमिका में स्पष्टतः यह लिखते हैं कि 'हरिभद्रसूरि ने इसे जो शास्त्रान्तर कहा है, इससे यह स्वतंत्र ग्रन्थ है, यह तो निश्चित है, किन्तु यह आवश्यकनियुक्ति के रचयिता की कृति नहीं है यह उससे फलित नहीं होता है । उसके प्रारम्भ में योगीश्वर और जिन को नमस्कार किया गया है, इस कारण से हरिभद्रसूरि इसे आवश्यकनियुक्तिकार की कृति नहीं मानते हों, यह तो हो नहीं सकता । कारण यह है कि किसी नवीन प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए नियुक्तियों में कितनी ही बार तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है । अतः उसे नियुक्तिकार भद्रबाहु (द्वितीय) की ही कृति माननी चाहिए ।'
यद्यपि इस ग्रन्थ की शैली एवं भाषा की नियुक्ति की शैली और भाषा से निकटता है, अतः उसे
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