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________________ ध्यानशतक व योगशास्त्र zašašázázažádážáčáží २०० भी दिखलाया गया है। पांचवें प्रकाश में विस्तार से प्राणायाम का निरूपण करते हुए छठे प्रकाश में उससे होनेवाली हानि का दिग्दर्शन कराया गया है तथा धर्मध्यान की सिद्धि में निमित्तभूत मनकी स्थिरता की आवश्यकता प्रगट की गई है। सातवें प्रकाश में ध्यान के इच्छुक योगी को पूर्व में ध्याता, ध्येय और फल के जान लेने की प्रेरणा करते हुए ध्येय के प्रसंग में उसके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार भेदों का निर्देश किया गया है व उनमें से प्रथम पिण्डस्थ ध्येय की प्ररूपणा की गई है । आठवें प्रकाश में पदस्थ और नौवें प्रकाश में रूपस्थ ध्येय का निरूपण किया गया है । दशम प्रकाश में रूपातीत ध्येय का दिग्दर्शन कराते हुए विकल्परूप में उस ध्येय के चार भेद भी निर्दिष्ट किये गये हैं- आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान । आगे यथाक्रम से उनके आश्रय से भी धर्मध्यान की प्ररूपणा की गई है । ग्यारहवें प्रकाश में शुक्लध्यान का निरूपण करके बारहवें प्रकाश में अनुभवसिद्ध तत्त्व को प्रकाशित किया गया है । ध्यानशतक का प्रभाव तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर इस योगशास्त्र के ऊपर ध्यानशतक का प्रभाव स्पष्ट दिखता है । यथा १ जिस प्रकार ध्यानशतक को प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार ने मंगल स्वरूप योगीश्वर वीर को नमस्कार करके ध्यानशतक के कहने की प्रतिज्ञा की है (१) उसी प्रकार आ. हेमचन्द्र ने योगीश्वर महावीर जिन को नमस्कार करते हुए योगशास्त्र के रचने की प्रतिज्ञा की है (१, १-४) । १२३ २ जिस प्रकार ध्यानशतक में स्थिर अध्यवसान को मन की स्थिरता को ध्यान का लक्षण बतलाकर उसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र कही गई है तथा साथ में यह भी निर्देश किया गया है कि ऐसा ध्यान छद्मस्थों के होता है, केवलियों का ध्यान योगों के निरोध स्वरूप है ( २-३ ); उसी प्रकार से यही भाव योगशास्त्र में भी प्रगट किया गया है (४-११५) । आगे ध्यानशतक में यह भी कहा है कि अन्तर्मुहूर्त मात्र ध्यानकाल पश्चात् चिन्ता अथवा ध्यानान्तर होता है, इस प्रकार बहुत वस्तुओं में संक्रमण के होने पर ध्यान की सन्तान दीर्घकाल तक चल सकती है । ठीक यही अभिप्राय योगशास्त्र में भी व्यक्त किया गया है। दोनों में शब्दों व अर्थ की समानता द्रष्टव्य है अंतोमुहुत्तपरओ चिंता झाणंतरं व होज्जाहि । सुचिरं पि होज्ज बहुवत्थुसंकमे झाणसंताणो ।। ध्या. श. ४ मुहूर्त्तात् परतश्चिन्ता यद्वा ध्यानान्तरं भवेत् । बह्वर्थसंक्रमे तु स्याद् दीर्घापि ध्यानसन्ततिः । । यो. शा. ४ - ११६ Jain Education International 2010_02 इसी प्रकार शुक्लध्यान के प्रसंग में उपयुक्त ध्यानशतक की कुछ गाथाओं का योगशास्त्र में छायानुवाद किया गया जैसा दिखता है । यथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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