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ध्यानशतकम्, Partstakarakakakakakarsatararakaratatataaratatatamatatakaraarsatarastate
थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं । गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रणे व ण विसेसो ।। ध्या. श. ३६ विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दुःस्थितेऽपि वा । यदि धत्ते स्थिरं चित्तं न तदास्ति निषेधनम् ।। ज्ञाना. २२, पृ. २८०
सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल चेट्ठासु । वरकेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा ।। ४० तो देस-काल-चेट्ठानियमो झाणस्स नत्थि समयंमि । जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइयव्वं ।। ध्या. श. ४१ वज्रकाया महासत्त्वा निःकम्पाः सुस्थिरासनाः । सर्वावस्थास्वलं ध्यात्वा गताः प्राग्योगिनः शिवम् ।। १३, पृ. २७९ संविग्नः संवृतो धीरः स्थिरात्मा निर्मलाशयः ।
सर्वावस्थासु सर्वत्र सर्वदा ध्यातुमर्हति ।। २१, पृ. २८० इस प्रकार की समानता को देखते हुए भी ज्ञानार्णव पर ध्यानशतक का कुछ प्रभाव रहा है, यह सम्भावना नहीं की जा सकती है । इसका कारण यह है कि आ. जिनसेन के द्वारा आदिपुराण के २१वें पर्व में जो ध्यान का वर्णन किया गया है उसका प्रभाव ज्ञानार्णव पर अत्यधिक रहा है । अतः यही सम्भव है कि ज्ञानार्णवकार ने ध्यानशतक की आधार न बनाकर आदिपुराण के आश्रय से ही ध्यानविषयक प्ररूपणा की है । ग्रन्थकार आ. शुभचन्द्र ने स्वयं ही ग्रन्थ के प्रारम्भ में आ. जिनसेन के वचनों के महत्त्व को प्रगट करते हुए उनका स्मरण किया है । पूर्वोल्लिखित ज्ञानार्णव के श्लोक १६, ८, २२ तथा १३ और २१ क्रमशः आदिपुराण पर्व २१ के ९, ७७, ८३ और ७३ श्लोकों से प्रभावित हैं । आदिपुराण का वह ध्यान का प्रकरण ध्यानशतक से विशेष प्रभावित है, यह पहिले प्रगट किया ही जा चुका है ।
ध्यानशतक व योगशास्त्र जैसा कि ग्रन्थ के नाम से ही प्रगट है, प्रस्तुत योगशास्त्र यह योगविषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । उसके रचयिता सुप्रसिद्ध हेमचन्द्र सूरि (वि. की १२वीं शती) हैं । वह १२ प्रकाशों में विभक्त है । उनमें से प्रथम तीन प्रकाशों में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप रत्नत्रय; तथा चतुर्थ प्रकाश में कषायों, इन्द्रियों एवं राग-द्वेषादि की विजय के साथ समताभाव की प्राप्ति को अनिवार्य बतलाते हुए अनित्यादि बारह और मैत्री आदि चार भावनाओं की भी प्ररूपणा की गई है । यहीं पर ध्यान के योग्य अनेक आसनों का स्वरूप
१. जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रविद्यवन्दिताः ।
योगिभिर्यत् समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये ।। ज्ञाना. १६, पृ.८
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