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________________ १२४ निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽ नियट्टिं तइयं झाणं तणुकायकिरियस्स ।। ८१ तस्सेव य सेलीसीगयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं ।। ध्या. श. ८२ निर्वाणगमनसमये केवलिनो दरनिरुद्धयोगस्य । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति तृतीयं कीर्तितं शुक्लम् ।। केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलवदकम्पनीयस्य । उत्सन्नक्रियमप्रतिपाति तुरीयं परमशुक्लम् ।। यो. शा. ११, ८-९ इसी प्रकार आगे गा. ८३-८४ का मिलान योगशास्त्र के ११, १०-११ श्लोकों से तथा गा. ८५, ८६ का मिलान योगशास्त्र के ११-१२वें श्लोकों से किया जा सकता है । कुछ विशेषता यहां यह विशेष स्मरणीय है कि आ. हेमचन्द्र ने ग्रन्थ के प्रारम्भ (१-४) में तथा अन्त में (१२- १ व १२-५५) में भी यह सूचना की है कि मैंने श्रुत के आश्रय से और गुरुमुख से जो योगविषयक ज्ञान प्राप्त किया है तदनुसार उसका वर्णन करता हुआ मैं कुछ अपने अनुभव के आधार से भी कथन करूंगा । इससे सिद्ध है कि उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में आगम परम्परा के अनुसार तो योग का वर्णन किया ही है, साथ ही उन्होंने अपने अनुभव के आधार से उसमें कुछ विशेषता भी प्रगट की है, जो इस प्रकार है १ आगमपरम्परा में ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये चार भेद कहे गये हैं । पर आ. हेमचन्द्र ने उसके भेदों में आर्त और रौद्र इन दो दुर्ध्यानों को सम्मिलित न करके उस ध्यान को धर्म और शुक्ल के भेद से दो प्रकार का ही बतलाया है । تم ध्यानशतकम्, २ ध्यानशतक में धर्मध्यान की प्ररूपणा यथाक्रम से भावना आदि (२८-२९) बारह द्वारों के आश्रय की गई है, परन्तु आ. हेमचन्द्र ने उसकी उपेक्षा करके ध्याता, ध्येय और फल के अनुसार यहां ध्यान का कथन किया है (७-१) । ३ आगमपरम्परा में व ध्यानशतक में भी पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपवर्जित इन चार ध्ययेभेदों १. जैसे - स्थानांग २४७, पृ. १८७; मूलाचार ५-१९७ और तत्त्वार्थसूत्र ९ - २८ । २. मुहूर्त्तान्तर्मनः स्थैर्यम् ध्यानं छद्मस्थयोगिनाम् । धर्म्यं शुक्लं च तद् द्वेधा, योगरोधास्त्वयोगिनाम् ।।४-११५ षट्खण्डागम की आ. वीरसेन विरचित धवला टीका (पु. १३, पृ. ७०) में भी आर्त-रौद्र को सम्मिलित न करके ध्यान के ये ही दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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