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________________ ११० ध्यानशतकम्, saraswaraamaanarastarashatansaansaanndattrakarasatara तत्पश्चात् ध्यान का निरूपण करते हुए उसके धर्म और शुक्ल इन दो भेदों का ही वहाँ निर्देश किया गया है, तप: कर्म का प्रकरण होने से वहां सम्भवतः आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों को ग्रहण नहीं किया गया । वह धर्मध्यान ध्येय के भेद से चार प्रकार का कहा गया है-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । आज्ञा, आगम, सिद्धान्त और जिनवचन ये समानार्थक शब्द है । इस आज्ञा के अनुसार प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमाणों के विषयभूत पदार्थो का जो चिन्तन किया जाता है उसका नाम आज्ञाविचय है । इस प्रसंग में यहां 'एत्थ गाहाओ' कहकर ध्यानशतक की ४५-४९ गाथायें उद्धृत की गई हैं । इसके आगे एक गाथा (३८) और उद्धृत की गई है जो मूलाचार (५-२०२) में उपलब्ध होती है ।। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से उत्पन्न होनेवाले जन्म, जरा और मरण की पीडा का अनुभव करते हुए उनसे होनेवाले अपाय का विचार करना, इसे अपायविचय धर्मध्यान कहते हैं । इस प्रसंग में यहां ध्यानशतक की ५०वीं गाथा उद्धृत की गई है । इसके साथ वहां कुछ पाठभेद को लिए हुए एक गाथा मूलाचार की भी उद्धृत की गई है, जिसका अभिप्राय यह है कि अपायविचय में ध्याता, कल्याणप्रापक उपायों-तीर्थकरादि पद की प्राप्ति की कारणभूत दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं का चिन्तन करता है, अथवा जीवों के जो शुभ-अशुभ कर्म हैं उनके अपाय (विनाश) का चिन्तन करता है । ___ विपाकविचय धर्मध्यान के स्वरूप को बतलाते हुए यहां यह कहा गया है कि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार से शुभ-अशुभ कर्मों के विपाक का स्मरण करना, इसका नाम विपाकविचय है । इस प्रसंग में यहां ध्यानशतक की ५१वीं गाथा उद्धृत की गई है । इसके साथ ही वहां मूलाचार को भी एक गाथा उद्धृत की गई है। धवला में संस्थानविचय धर्मध्यान के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि तीनों लोकों के आकार, प्रमाण एवं उनमें वर्तमान जीवों की आयु आदि का विचार करना; यह संस्थानविचय धर्मध्यान कहलाता है । इस प्रसंग में वहां ध्यानशतक की ५ (५२-५६) गाथायें उद्धृत की गई हैं । इसके आगे १. हेमचन्द्रसरि विरचित योगशास्त्र में भी इन दो दानों को ध्यान में सम्मिलित नहीं किया गया है (४-११५) । २. धवला में इनकी क्रमिकसंख्या ३३-३७ है (पृ. ७१) । ३. धवला में उसकी क्रमिकसंख्या ३९ है (पृ. ७२) । ४. मुलाचार ५-२०३ । (यह गाथा भगवती आराधना (१७११) में भी उपलब्ध होती है); धवला में उसकी क्रमिक संख्या ४० _ (पृ. ७२)। ५. धवला में उसकी क्रमिकसंख्या ४१ है (पृ. ७२) । ६. मूलाचार ५-२०४; यह गाथा भगवती आराधना (१७१३) में भी पायी जाती है । ७. धवला में इनकी क्रमिकसंख्या ४३-४७ (पृ. ७३) है । _Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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