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ध्यानशतक और धवला का ध्यानप्रकरण
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में वह ‘विलपनता' है । इन दोनों के अभिप्राय में कुछ भेद नहीं है ।
स्थानांग और भगवतीसूत्र में जहां धर्मध्यान के चार लक्षणों में तीसरा सूत्ररुचि और चौथा अवगाढरुचि है वहां औपपातिकसूत्र में तीसरा उपदेशरुचि और चौथा सूत्ररुचि है । ध्यानशतक में भी दूसरा लक्षण उपदेशश्रद्धान कहा गया है । परन्तु जैसा कि ऊपर स्पष्टीकरण किया जा चुका है, तदनुसार उन दोनों में अभिप्रायभेद कुछ नहीं रहा ।
स्थानांग और भगवतीसूत्र के अन्तर्गत धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं में जहां प्रथमतः एकत्वानुप्रेक्षा है वहां औतपातिक में प्रथमतः अनित्यानुप्रेक्षा का निर्देश किया गया है, एकत्वानुप्रेक्षा का स्थान यहां तीसरा है । ध्यानशतक में भी ‘अनित्यादिभावना' के रूप में निर्देश किया गया है, संख्या की कुछ सूचना वहां नहीं की गई है । __ स्थानांग और भगवतीसूत्र में निर्दिष्ट शुक्लध्यान के चार भेदों में तीसरा सूक्ष्मक्रियानिवर्ती और चौथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती है । पर औपपातिकसूत्र में अनिवर्ती और अप्रतिपाती में क्रमव्यत्यय होकर वे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रियानिवर्ती के रूप में निर्दिष्ट हुए हैं ।
इसी प्रकार औपपातिकसूत्र में शुक्लध्यान के लक्षणों, आलम्बनों और अनुप्रेक्षाओं में भी कुछ थोडासा शब्दभेद व क्रमभेद हुआ है ।
ध्यानशतक और धवला का ध्यानप्रकरण आचार्य भूतबलि-पुष्पदन्त (प्रायः प्रथम शताब्दी) विरचित षट्खण्डागम पर आ. वीरसेन स्वामी (९वीं शताब्दी) द्वारा एक धवला नामक विस्तृत टीका रची गई है । षट्खण्डागम के वर्गणा नामक पांचवें खण्ड में एक कर्म अनुयोगद्वार है । उसमें १० कर्मभेदों के अन्तर्गत ८वें तपःकर्म का निर्देश करते हुए उसे छह अभ्यन्तर और छह बाह्य तप के भेद से बारह प्रकार का कहा गया है । उसकी व्याख्या करते हुए आ. वीरसेन ने अपनी उस टीका में अभ्यन्तर तप के पांचवें भेदभूत ध्यान की प्ररूपणा इन चार अधिकारों के द्वारा की है-ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल । तदनुसार वहां प्रथमतः ध्याता का विचार करते हुए उसमें कौन कौनसी विशेषतायें होनी चाहिए, इसे स्पष्ट करने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषणों का उपयोग किया गया है । इस प्रसंग में उन्होंने 'एत्थ गाहा' या 'गाहाओ' कहकर ध्यानशतक की इन गाथाओं को उद्धृत किया है -२, ३९-४०, ३७, ३५-३६, ३८, ४१-४३ और ३०-३४ । कुछ गाथायें यहां भगवती आराधना से भी उद्धृत की गई हैं ।
आगे धवला में क्रमप्राप्त ध्येय की प्ररूपणा में अनेक विशेषणों से विशिष्ट अरहन्त, सिद्ध और जिनप्ररूपित नौ पदार्थों आदि को ध्येय-ध्यान के योग्य-कहा गया है । १. ष. खं. ५, ४, २५-२६-पु. १३, पृ. ५४ । २. धवला में इनकी क्रमिकसंख्या इस प्रकार है-१२, १४-१५,१६,१७-१८, १९, २०-२२ और २३-२७ । (पु. १३, पृ. ६४-६८)। ३. धवला पु. १३, पृ. ६९-७० ।
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