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________________ ध्यानशतक और स्थानांग १०५ watantaratatatatakaratastaraswatatasrstarakaratatatatatatatatakararate से प्राप्त होने वाले शब्दादि भोगों से सम्बद्ध है, इस प्रकार उन दोनों में यह अंतर समझना चाहिए । शास्त्रान्तर में द्वितीय और चतुर्थ के एक होने से-उनमें भेद न रहने से उन्हें तीसरा आर्तध्यान माना गया है तथा चतुर्थ आर्तध्यान निदान को स्वीकार किया गया है । यह कहते हुए उन्होंने आगे ध्यानशतक की आर्तध्यान से सम्बद्ध चारों गाथाओं को (६-९) को भी उद्धृत कर दिया है । इस प्रकार शास्त्रान्तर से उनका अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्र और ध्यानशतक का ही रहा दिखता है । . स्थानांग में जो प्रकृत आर्तध्यान के चार लक्षण (लिंग) निर्दिष्ट किये गये है उनमें कन्दनता, शोचनता और परिदेवनता इन तीन को ध्यानशतक में प्रायः उसी रूप में ले लिया गया है, किन्तु 'तेपनता' के स्थान में वहां ताडन आदि को ग्रहण किया गया है । अभयदेवसूरि ने 'तिपि' धातु को क्षरणार्थक मानकर तेपनता का अर्थ अश्रुविमोचन किया है । रौद्रध्यान स्थानांग में रौद्रध्यान का निरूपण करते हुए उसके चार भेद गिनाये गये हैं-हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी । ध्यानशतक में उनका इस प्रकार से नामोल्लेख तो नहीं किया गया, किन्तु वहां जो उनका स्वरूप कहा गया है उससे इन नामों का बोध हो जाता है । __ स्थानांग में रौद्रध्यान के ये चार लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं-ओसन्नदोष, बहुदोष, अज्ञानदोष, और आमरणान्तदोष । ध्यानशतक में वे इस प्रकार उपलब्ध होते हैं-उस्सण्ण (उत्सन्न) दोष, बहुलदोष, नानाविधदोष और आमरणदोष' । इनमें ओसण्ण और उस्सण्ण, बहु और बहुल तथा आमरणान्त और आमरण इनमें अर्थतः कोई भेद नहीं है । केवल अण्णा और णाणाविह (नानाविध) में कुछ भेद हो गया दिखता है । फिर भी दोनों ग्रन्थों के टीकाकार क्रम से अभयदेव सूरि और हरिभद्र सूरि ने उनका जो अभिप्राय व्यक्त किया है वह प्रायः समान ही है । १. द्वितीयं वल्लभधनादिविषयम्, चतुर्थं तत्संपाद्यशब्दादिभोगविषयमिति भेदोऽनयोर्भावनीयः । शास्त्रान्तरे तु द्वितीय-चतुर्थयोरेकत्वेन तृतीयत्वम्, चतुर्थं तु तत्र निदानमुक्तम् । उक्तं च-(ध्या. श. ६-९) । स्थाना. टीका २४७, पृ. १८९ । २. निदानं च । त. सू. ९-३३ । ३. अट्टस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० (पण्णत्ता) तं० (तं जहा)- कंदणता सोचणता तिप्पणता परिदेवणता । स्थाना. पृ. १८९ । ४. ध्या. श. १५ । ५. तेपनता-तिपेः क्षरणार्थत्वादविमोचनम् । स्थाना. टीका । ६. रोद्दे झाणे चउव्विहे पं० तं०-हिंसाणुबन्धि मोसाणुबंधि तेणाणुबंधि सारक्खणाणुबंधि । स्थाना. पृ. १८८ । ७. ध्यानशतक १९-२२ । ८. रुद्दस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं०-ओसण्णदोसे बहुदोसे अन्नाणदोसे आमरणदोसे । स्थाना. पृ. १८८ । ९. ध्या. श. २६ । १०. अज्ञानात्-कुशास्त्रसंस्कारात हिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेष धर्मबद्धयाऽभ्युदयार्थं वा प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषोऽज्ञानदोषः । स्थाना. टी. पृ. १९०; नानाविधेषु त्वकृत्वक्षण-नयनोत्खननादिषु हिंसाधुपायेष्वसकृदप्येवं प्रवर्तते इति नानाविधदोषः । ध्या. श. टीका २६ । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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