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________________ १०६ ध्यानशतकम्, kakakakaratundatabaradstirantaratarawasakaranatakaararakaraastaadaras ३ धर्मध्यान स्थानांग में धर्मध्यान के ये चार भेद निर्दिष्ट किए गए हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचर्य। ध्यानशतक में उसके इन नामों का निर्देश नहीं किया गया है । किन्तु वहां उसके भावनादि बारह अधिकारों में से ध्यातव्य अधिकार के प्रसंग में आज्ञा एवं अपाय आदि का जो स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है उससे उसके वे चार भेद स्पष्ट हो जाते हैं । स्थानांग में धर्मध्यान के ये चार लक्षण कहे गए हैं-आज्ञारुचि, निसर्गरूचि, सूत्ररुचि और अवगाढरुचि । ध्यानशतक में प्रकारान्तर से उनका निर्देश इस प्रकार किया गया है-आगम, उपदेश, आज्ञा और निसर्ग से जिनप्ररूपित तत्त्वों का श्रद्धान । इनमें श्रद्धान शब्द 'रुचि' का समानार्थक है । आज्ञा और निसर्ग ये दोनों ग्रन्थों में शब्दशः समान ही हैं । सूत्र के पर्यायवाची आगम शब्द का यहां उपयोग किया गया है । स्थानांग में चौथा लक्षण जो अवगाढरूचि कहा गया है उसमें अवगाढ का अर्थ द्वादशांग का अवगाहन है, उससे होने वाली रुचि या श्रद्धा का नाम अवगाढरूचि है । इसके स्थान में ध्यानशतक में जो 'उपदेश' पद का उपयोग किया गया है उसका भी अभिप्राय वही है । कारण यह कि आगम के अनुसार तत्त्व के व्याख्यान का नाम ही तो उपदेश है । इस प्रकार अवगाढरूचि और उपदेश श्रद्धा में कुछ भेद नहीं है । स्थानांग में धर्मध्यान के ये चार आलम्बन कहे गए हैं-वाचना, प्रतिप्रच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा । इनमें से वाचना, प्रच्छना और परिवर्तना ये तीन ध्यानशतक में शब्दशः समान ही हैं । स्थानांग में चौथा आलम्बन जो अनुप्रेक्षा कहा गया है उसके स्थान में ध्यानशतक में अनुचिन्ता को ग्रहण किया गया है । वह अनुप्रेक्षा का ही समानार्थक है । दोनों का ही अर्थ सूत्रार्थ का अनुस्मरण है । स्थानांग में धर्मध्यान की ये चार अनुप्रेक्षायें कही गई हैं-एकानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा । ध्यानशतक में धर्मध्यान से सम्बद्ध एक अनुप्रेक्षा नाम का पृथक् प्रकरण है । उसके सम्बन्ध में वहां इतना मात्र कहा गया है कि धर्मध्यान के समाप्त हो जाने पर मुनि सर्वदा अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन में तत्पर होता है । वहां अनित्यादि भावनाओं की संख्या का कोई निर्देश नहीं किया गया । टीकाकार १. धम्मे झाणे चउव्विहे चउप्पडोयारे पं० तं०-आणाविजते अवायविजते विवागविजते संठाणविजते । स्थानां. पृ. १८८ । २. ध्या. श.-आज्ञा ४५-४९, अपाय ५०, विपाक ५१, संस्थान ५२-६२ । ३. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं०-आणारुई णिसग्गरुई सुत्तरुई ओगाढरुती । स्थानां. पृ. १८८ । ४. ध्या. श. ६७ । ५. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पं० तं०-वायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा । स्थानां. पृ. १८८ । ६. ध्या. श. ४२ । ७. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पं० २०-एगाणुप्पेहा अणिच्चाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा । स्थानां. पृ. १८८ । ८. ध्या. श. ६५ । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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