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ध्यानशतक व भगवती-आराधना karanatakakakakakararararakararararsrakararararararararakarakarararakarakarare है । उनमें भी समाधिमरण के प्रमुख होने के कारण क्षपक के आश्रय से मरण के १७ भेदों में पण्डितपण्डितमरण, पण्डित-मरण, बाल-पण्डितमरण, बालमरण और बाल-बालमरण इन पांच मरणभेदों का कथन किया गया है । वहां भक्तप्रत्याख्यान के भेदभूत सविचार भक्तप्रत्याख्यान के प्रसंग में यह कहा गया है कि जो संसार परिभ्रमण के दुःखों से डरता है वह संक्लेश के विनाशक चार प्रकार के धर्म और चार प्रकार के शुक्लध्यान का ही चिन्तन किया करता है । वह परीषहों से सन्तप्त होकर भी कभी आर्त
और रौद्र इन दुर्व्यानों का चिन्तन नहीं करता (१६६९-७०) । इसी प्रसंग में वहां दो गाथाओं द्वारा क्रम से चार प्रकार के आर्त और चार प्रकार के रौद्रध्यान की संक्षेप में सूचना की गई है और तत्पश्चात् यह कहा गया है कि इन दोनों को उत्तम गति का प्रतिबन्धक जानकर क्षपक उनसे दूर रहता हुआ निरन्तर धर्म और शुक्ल इन दोनों ध्यानों में अपनी बुद्धि को लगाता है (१७०२-४) । ___ पश्चात् शुभ ध्यान में प्रवृत्त रहने की उपयोगिता को प्रगट करते हुए संक्षेप में ध्यान के परिकर की सूचना की गई है । तदनन्तर धर्मध्यान के लक्षण व आलम्बन का निर्देश करते हुए उसके आज्ञाविचयादि चारों भेदों का पृथक् पृथक् लक्षण कहा गया है (१७०५-१४) । __धर्मध्यान के चतुर्थ भेदभूत संस्थानविचय के स्वरूप को दिखलाते हुए यहां भी मूलाचार के समान इस संस्थानविचय में अनुगत अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन की आवश्यकता प्रगट की गई है । प्रसंगवश यहां उन अध्रुवादि बारह अनुप्रेक्षाओं का नामनिर्देश करके उनमें किस प्रकार क्या चिन्तन करना चाहिए, इसकी विस्तार से प्ररूपणा की गई है (१७१४-१८७३) । ___ आगे यह कहा गया है कि उक्त बारह अनुप्रेक्षायें धर्मध्यान की आलम्बनभूत हैं । ध्यान के आलम्बनों के आश्रय से मुनि उस ध्यान से च्युत नहीं होता । वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा ये उक्त धर्मध्यान के आलम्बन हैं । लोक धर्मध्यान के आलम्बनों से भरा हुआ है, ध्यान का इच्छुक क्षपक मन से जिस ओर देखता है वही उस धर्मध्यान का आलम्बन हो जाता है (१८७४-७६) ।
इस प्रकार से क्षपक जब धर्मध्यान का अतिक्रमण कर देता है तब वह अतिशय विशुद्ध लेश्या से युक्त होकर शुक्लध्यान को ध्याता है । आगे उस शुक्लध्यान से चार भेदों का निर्देश करके उनका पृथक् पृथक् स्वरूप भी प्रगट किया गया है (१८७७-८९) । __ आगे कहा गया है कि इस प्रकार से क्षपक जब एकाग्रचित होता हुआ ध्यान का आश्रय लेता है तब वह गुणश्रेणि पर आरूढ होकर बहुत अधिक कर्म की निर्जरा करता है । अन्त में ध्यान के माहात्म्य को दिखलाते हुए इस प्रकरण को समाप्त किया गया है । __ भगवती-आराधना में आर्जव, लघुता (निःसंगता), मार्दव और उपदेश इनको धर्मध्यान का लक्षणपरिचारक लिंग-कहा गया है । ये धर्मध्यानी के स्वभावतः हुआ करते हैं । अथवा उसकी सूत्र मेंआगमविषयक उपदेश में-स्वभावतः रूचि हुआ करती है।
१. धम्मस्स लक्खणं से अज्जव-लहगत्त-मद्दवोवसमा । उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रुचीओ दे । भ. आ. १७०९ ।
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