SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८ ध्यानशतकम्, Pararararararanatakararakaraarakarakararakarakarakakakakakakakakakakakakakare विशेष इतना है कि मूलाचार में उसके द्वितीय भेद के लक्षण में जहां कल्याणप्रापक उपायों, जीवों के अपायों और उनके सुख-दुःख को चिन्तनीय कहा गया है (५. २०३) वहां ध्यानशतक में रागद्वेषादि में वर्तमान जीवों के उभय लोकों से सम्बद्ध अपायों को चिन्तनीय निर्दिष्ट किया गया है (५०) । इसके अतिरिक्त मूलाचार में धर्मध्यान के चतुर्थ भेद के लक्षण को प्रगट करते हुए उसमें ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक के आकारादि के चिन्तन के साथ अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन की भी आवश्यकता प्रगट की गई है तथा आगे उन अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षाओं के नामों का निर्देश भी कर दिया गया है (५, २०५-६) । परन्तु ध्यानशतक में व्यापक रूप में उनका व्याख्यान करते हुए यह कहा गया है कि धर्मध्यानी को उसमें द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, आसन, विधान, मान (प्रमाण) और उनकी उत्पादादि पर्यायों के साथ ऊर्ध्वादि भेदों में विभक्त लोक के स्वरूप का भी चिन्तन करना चाहिए । इसके अतिरिक्त यहां यह भी कहा गया है कि जीव के स्वरूप, उसके संसार परिभ्रमण के कारण और उससे उद्धार होने के उपाय का भी विचार करना आवश्यक है (५२-६२) । यहां अनुप्रेक्षा द्वार एक पृथक् ही है जहां यह कहा गया है कि ध्यान के विनष्ट होने पर मुनि अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन में उद्यत होता है (६५) । यहां उन अनित्यादि भावनाओं की संख्या और नामों का कोई निर्देश नहीं किया गया । मूलाचार में शुक्लध्यान के प्रसंग में इतना मात्र कहा गया है कि उपशान्तकषाय पृथक्त्व-वितर्कवीचार ध्यान का, क्षीणकषाय एकत्व-वितर्क-अवीचार ध्यान का, सयोगी केवली तीसरे सूक्ष्मक्रिय ध्यान का और अयोगी केवली समुच्छिन्नक्रिय ध्यान का चिन्तन करता है (२०७-८) । परन्तु ध्यानशतक में उसके आलम्बन व क्रम (योगनिरोधक्रम) आदि की चर्चा करते हुए ध्यातव्य के प्रसंग में पृथक्त्व-वितर्क-सविचार आदि चार प्रकार के शुक्लध्यान के पृथक् पृथक् लक्षणों का भी निर्देश किया गया है (७७-८२) । उनके स्वामियों का निर्देश धर्मध्यान के प्रसंग (६४) में किया गया है । मूलाचार में शुक्लध्यान को छोडकर अन्य आर्त आदि किसी भी ध्यान के स्वामियों का निर्देश नहीं किया गया, जब कि ध्यानशतक में पृथक् पृथक् उन चारों ही ध्यानों के स्वामियों का निर्देश यथास्थान किया गया है (१८, २३, ६३ व ६४) । ___ इन दोनों ग्रन्थों में ध्यान के वर्णन में जहां कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है वहां कुछ उसमें विशेषता भी उपलब्ध होती है । इसको देखते हुए भी एक ग्रन्थ का दूसरे की रचना में कुछ प्रभाव रहा है, ऐसी प्रतीत नहीं होता । ध्यानशतक व भगवती-आराधना भगवती-आराधना आचार्य शिवार्य (सम्भवतः २-३री शती) के द्वारा रची गई है । आराधक को लक्ष्य करके उसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप इन चार आराधनाओं की प्ररूपणा की गई १. टीकाकार हरिभद्र सूरि ने उसके स्पष्टीकरण में अनित्य, अशरण, एकत्व और संसार इन चार भावनाओं का निर्देश किया है (इसका आधार स्थानांग का ध्यान प्रकरण रहा है-सूत्र २४७, पृ. १८८) । इसी प्रसंग में आगे हरिभद्रसूरि ने प्रशमरतिप्रकरण से बारह भावनाओं के प्ररूपक पद्यों को भी उद्धृत किया है । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy