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ध्यानशतक और मूलाचार aakaansaaraaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaantarakataste
मूलाचार में आर्तध्यान के चार भेदों का नामनिर्देश न करके सामान्य से उसका स्वरूप मात्र प्रगट किया गया है । उस स्वरूप को प्रगट करते हुए अमनोज्ञ के योग, इष्ट के वियोग, परीषह और निदान इस प्रकार से उसके चिन्तनीय विषय के भेद का जो दिग्दर्शन कराया गया है उससे उसके चार भेद स्पष्ट हो जाते हैं (५-१९८) । तत्त्वार्थ सूत्र (९-३२) में जहां उसके तृतीय भेद को वेदना के नाम से निर्दिष्ट किया गया है वहां प्रकृत मूलाचार में उसका निर्देश परीषह के नाम से किया गया है । ___ ध्यानशतक में भी उसके चार भेदों का नामनिर्देश नहीं किया गया, फिर भी उसके चार भेदों का स्वरूप जो पृथक् पृथक् चार गाथाओं (६-९) के द्वारा निर्दिष्ट किया गया है उससे उसके चार भेद प्रकट है (१९२२)। यहां उनका कुछ क्रमव्यत्यय अवश्य है । जैसे प्रथम भेद में अमनोज्ञ के वियोग द्वितीय भेद में शूल रोगादि की वेदना के वियोग, तृतीय भेद में अभीष्ट विषयों की वेदना (अनुभवन) के अवियोग और चतुर्थ भेद में निदान के विषय में चिन्तन । इस प्रकार मूलाचार में जो द्वितीय है वह ध्यानशतक में तृतीय है तथा मूलाचार में जो तृतीय है वह ध्यानशतक में द्वितीय है । इसके अतिरिक्त दोनों में वियोग और अवियोग विषयक भी कुछ विशेषता रही है । जैसे-मूलाचार में अमनोज्ञ का योग (संयोग) होने पर जो उसके विषय में संक्लेशरूप परिणति होती है उसे प्रथम आर्तध्यान कहा गया है । पर ध्यानशतक में अमनोज्ञ विषयों के वियोग के लिए तथा उनका वियोग हो जाने पर भविष्य में पुनः उनका संयोग न होने के विषय में जो चिन्तन होता है उसे प्रथम आर्तध्यान कहा गया है । यह केवल उक्तिभेद है, अभिप्राय में कुछ भेद नहीं है । ___ मूलाचार में आर्तध्यान के समान रौद्रध्यान के भी स्वरूप का सामान्य से निर्देश किया गया है, उसके भेदों का नामनिर्देश नहीं किया गया (५-१९९) । फिर भी विषयक्रम के निर्देश से उसके चार भेद स्पष्ट दिखते हैं । यहां चतुर्थ भेद का विषय जो छह प्रकार का आरम्भ निर्दिष्ट किया गया है उसे हिंसा का ही द्योतक समझना चाहिए । ___ ध्यानशतक में भी यद्यपि रौद्रध्यान के उन चार भेदों का नामनिर्देश तो नहीं किया, फिर भी आगे वहां चार (१९-२२) गाथाओं द्वारा उनके लक्षणों का जो पृथक् पृथक् निर्देश किया गया है उससे उसके चार भेद स्पष्ट हो जाते हैं । आगे (२३) उनकी चार संख्या का भी निर्देश कर दिया गया है ।
मूलाचार में धर्मध्यान के आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इन चार भेदों का स्पष्टतया नामनिर्देश करते हुए उनके पृथक् पृथक् लक्षण भी कहे गये हैं (२०१-५) ।
ध्यानशतक में उसके उन चार भेदों का नामनिर्देश तो नहीं किया गया, किन्तु उसके प्ररूपक भावना आदि बारह द्वारों के अन्तर्गत ध्यातव्य द्वार की प्ररूपणा (४५-६२) में जो आज्ञा, अपाय, विपाक और द्रव्यों के लक्षण व संस्थान आदि के स्पष्टीकरणपूर्वक उनके चिन्तन की प्रेरणा की गई है उससे उसके वे नाम स्पष्ट हो जाते हैं ।
१. तत्त्वार्थ सूत्र में (९-३६) भी उसके इन चार भेदों की सूचना विषयभेद के अनुसार ही की गई है ।
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