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धर्मदेव-कूर्मापुत्र चरित्र भावधर्म का माहात्म्य
१०३ जिज्ञासा का खुलासा देते हुए, जगदुत्तम प्रभु ने कहा-(१७३) जब कूर्मापुत्र, अपने मुख सें, आपको यह बात कहेंगे कि आप सब महाशुक्र देवलोग के मन्दिर विमान में देव हुआ करते थे और वहाँ से आप मानवभव में आए....और श्रमणत्व
पाया है......यह सुनते ही आप को केवलज्ञान प्राप्त होवे गा । १७४. इस तरह भगवन्त के पास, अपने भावि केवलज्ञान की बात
जानकर, तत्त्वों के जाननेवालें, मनोगुप्ति-वचनगुप्ति-कायगुप्ति को धारण करनेवालें वें चारों चारण श्रमणों ने जिनेश्वरभगवन्त को नमस्कार किया और वहाँ से ऊठ कर, भरतक्षेत्र में कूर्मापुत्र
केवली के पास आए, और मौन ही खड़े रह गए। १७५. इसी वक्त कूर्मापुत्र केवली, चारण श्रमणों को कहते है,-हे
भद्र! मुनिवरों ! आप को क्या जिनेश्वरभगवन्त ने यह नहीं कहे हैं कि आपने महाशुक्र देवलोक के मन्दिर विमान में देव के
दिव्य सुखों का भोग अनुभव किया हुआ है । १७६. कूर्मापुत्र के वचन सुनते ही, जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होने से,
चारण मुनियों को पूर्वभव का स्मरण हो गया, भावोल्लास बढ़ते ही, वें महामुनि 'क्षपकश्रेणि' पर आरूढ़ हुए = कर्मों का
सर्वनाश करने वाला उग्र प्रबल ध्यान आरम्भ किया.... ॥ क्षपकश्रेणि का स्वरूप ॥
यहाँ प्रसंगोपात्त ग्रन्थकार यह दिखाते हैं कि क्षपकश्रेणि का आरम्भ कर के आत्मा किस तरह 'गुणश्रेणि' को क्रमशः प्राप्त
करती है :१७७-१८२. सब से पहेले-शुद्ध अध्यवसायवन्त आत्मा (अन०)
अनन्तानुबन्धि = अनन्त संसार का अनुबन्ध जिससे होता हैचारों क्रोध-मान-माया-लोभ-कषायों का नाश करती है, उसके
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