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धर्मदेव - कूर्मापुत्र चरित्र भावधर्म का माहात्म्य
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१५८. ऐसे में इन्द्रियों की कुशलता हों । तन का आरोग्य हो । फिर भी जिनधर्म सुनने का संयोग हो यह बात ही दुर्लभ है । क्योंकि जिनधर्म को सुनानेवाले ' श्रेष्ठ गुणवन्त श्रमण भगवन्त का सर्वत्र सर्व काल होना होता ही नहीं है । १५९. 'जिनवचन' श्रवण हो, पर 'जिनवचन' पर श्रद्धा का होना ओर भी दुर्लभ है- क्योंकि बहोत से लोगों के मन, विषयविकारों में ही आसक्त होते हैं ।
१६०-१६१. जिनवचनों पर श्रद्धा तो भलें हों; किन्तु जिनवचनों के अनुसार जीवन जीना जीवन की धर्म की क्रियाएँ करनी, इसके लिए प्रमाद का त्याग करना, बड़ा ही कठिन राह है- क्योंकि धर्म में प्रवृत्त होने को चाहने वाले मनुष्य को प्रमाद ही शत्रु की भाँति रुकावट पैदा करता है । ( १६१) प्रमाद ही परम शत्रु है, द्वेषी है, मोक्ष नगर में प्रस्थान करते प्राणी को लुटनेवाला बड़ा चोर है, और प्रमाद नरक का मार्ग है ।
१६२. पुण्यवन्त पुरुषों को धन्यवाद कि जिन्होंने मानवभव वगेरह सब सामग्री के पाने के बाद, प्रमाद को छोड़कर चारित्रधर्म का पालन करके परमपद = मुक्तिपद को प्राप्त करते हैं ।
१६३. जिनेश्वरभगवन्त का ऐसा उपदेश सुनकर कितनों ने मानवो ने सम्यक्त्व (= जीव - अजीव की सही समज) पाया कितनों ने चारित्र ( = जीवादि की सही समज के अनुसार- दूसरें जीवो के संरक्षण हेतु, पापप्रवृत्ति का त्याग ) को स्वीकारा, तो कितनों ने अंशत: चारित्र = श्रावकधर्म का स्वीकार किया ।
१६४. इस और कमला राणी, भ्रमर राजा, द्रोण राजा और द्रुमा राणी, चारित्र धर्म की आराधना के कारण शुक्रनामक देवलोग में देव हुवे थे वे चारों अपनी आयु पूर्ण होते ही वहाँ से च्युत होकर
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