SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० कूर्मापुत्रचरित्र १५०. किसी दिन 'जगदुत्तम' नाम के तीर्थंकर भगवान, उस नगरी के उद्यान में पधारें, उद्यान के तरुनिकुंज (अपने फल और औषधीय उपयोगिता के कारण) श्रेष्ठ और प्रधान थें । १५१. विमानवासी, ज्योतिषी, भवनपति और वानव्यंतर देवों ने मिलकर अपनें अपने अधिकार मुजब, रत्न, सुवर्ण और रजत से तीन गढ़ के रमणीय 'समवसरण' की रचना की। १५२. सूर्य के आगमन सें चक्रवाक पक्षी की तरह चक्रवर्ती भी जिनेश्वर का आगमन सुनकर, प्रसन्न मन सें, परिवार के साथ वन्दन के लिए आया । १५३. जिनेश्वरभगवन्त को तीन प्रदक्षिणा कर, वन्दन कर, दोनों हाथ जोड़कर, चक्रवती योग्य स्थान पर बेठा । १५४. अब प्रभु ने भव-सागर को तरने के लिए एकमात्र नाँव समान, सुधामधुर वाणी में धर्म उपदेश शुरु किया । जैसा कि.... १५५. हे भव्य जीवों ! सुनों (अपनी भव भ्रमण की कहानी)-यह जीव, निगोद (जहाँ समग्र जीव, तीव्र मोह निद्रा के कारण अचेतन हो रहे होते है वहाँ) से (अपने मोहनीय कर्मो के) किसी न किसी तरह भुगतान से 'लघुकर्मा' होकर) भवभ्रमण कर आखिर में मनुष्य भव को पाते है। १५६. मानवभव पाने पर भी अति दुर्लभ 'आर्यक्षेत्र' में जन्म तो प्राप्त करते है किन्तु चौर-म्लेच्छ इत्यादि अनार्य कुलों में; उत्पन्न होते हैं। १५७. जब आर्यक्षेत्र में आर्य कुलों में पैदा होते है-तब भी पाँचों .. इन्द्रियों की परिपूर्ण (कुशल)ता पाना तो अतीव मुश्किल है । क्योंकि आमतोर पर किसी भी मानव का शरीर रोगरहित हो ऐसा सर्वथा असम्भव है । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002556
Book TitleSirikummaputtachariam
Original Sutra AuthorJinmanikyavijay
AuthorChandanbalashreeji
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages194
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy