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धर्मदेव-कूर्मापुत्र चरित्र भावधर्म का माहात्म्य १४२. नर्तकी के प्रति राग के कारण आषाढाभूति नट, जो पहले मुनि
थें, भरतचक्रवर्ती के नाटक का अभिनय करते करते, भावधर्म
हृदय को छू गया...और केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । । १४३-१४४. वास्तव में द्रव्यस्तव = द्रव्यधर्म से बढ़कर है; भावस्तव
= भावधर्म० द्रव्यस्तव-सरसों जैसा है; भावस्तव मेरुगिरि जैसा है-इसी तरह द्रव्यस्तव और भावस्तव में बड़ा अन्तर है । (१४४) उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट द्रव्यस्तव द्रव्यधर्म (के पालन) से
अच्युत नामक बारहवें देवलोक तक ही शुभगति होती है । किन्तु भावस्तव = भावधर्म में तो अन्तर्मुहूर्त में (= पलभर में)
ही मुक्ति हो जाती है। ॥ कूर्मापुत्र के केवलज्ञान की जानकारी कैसे होती है । १४५-१४७. इस मनुष्यक्षेत्र के ढाई द्वीप में, पाँच पाँच महाविदेहक्षेत्र
है । जिन्हों के १६० 'विजय' = भरतक्षेत्र प्रमाण-भूमिक्षेत्र होते है-उसमें १६० के साथ पाँच भरत और पाँच ऐरवत के मिलाने सें-१७० क्षेत्र होते है-यह १७० मैं किसी वक्त एक ही समय १७० जिनेश्वर भगवन्त होते है-यह आडबात का हेतु यह है कि 'कूर्मापुत्र को केवलज्ञानी के रूप में प्रसिद्ध करने के लिए
चारण आकाशगामी मुनि, महाविदेह में आनेवाले है-जैसा कि १४८. जम्बूद्वीप के महाविदेह में मंगलावती नाम प्रसिद्ध विजय क्षेत्र
है, वहाँ धन धान्य से समृद्ध, सुन्दर रत्नसंचया नाम की नगरी
१४९. उस विजय में (अपने तेज से सूरज का भी विजय कर रहा हो)
सूरज से भी ज्यादा प्रतापवन्त, और ६४ हजार नारीयों का नाथ, देवादित्य नाम का चक्रवर्ती राजा है ।
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