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________________ ९८ कूर्मापुत्रचरित्र आरूढ (= मग्न) हो, शुक्लध्यानरूप पावन पावक से क्लिष्ट कर्मों का दहन दिया और उज्ज्वल-निर्मल केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया । १३५. अब केवलज्ञानी कूर्मापुत्र में देखा कि-यदि मैं मुनिवेष का स्वीकार करूँगा, तो पुत्रवियोग में माता-पिता का मरण होवेगा। १३६. इसी वजह भावसंयमी कूर्मापुत्र, केवलज्ञान की लक्ष्मी पाते हुए भी मातापिता अनुरोधवश गृह में रहने लगे । १३७. कूर्मापुत्र के समान, दूसरा कौन मातृभक्त-पितृभक्त होगा, जो केवलज्ञान पा कर भी केवल अपने माता-पिता के प्रति प्रेम (अनुकम्पा) के कारण, घर में वस रहे थें । १३८. केवलज्ञानी कूर्मापुत्र धन्य है-जो केवलज्ञान प्राप्त कर भी मात्र माता-पिता को प्रतिबोध हो इसलिए घर में इस तरह से रहने लगें-कि किसी को भी उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ है-ऐसा प्रतीत न हो सका । १३९. गृहवास में बसते हुए कूर्मापुत्र ने अनन्त केवलज्ञान पाया, वाह भावधर्म का प्रभाव । १४०. भरतमहाराजा चक्रवती सार्वभौम सम्राट थे, और अपने योग्य अन्तःपुर (की रानीयों के साथ विषय विलास) में मगन थे, किसी दिन शीशमहल में श्रृङ्गार करने के वास्ते गए थे...तब भावधर्म के प्रभाव में ही केवलज्ञान पाया था । १४१. गृहस्थ अवस्था में नट इलापुत्र (अपने व्यवसाय की वजह से) बाँस पर चढ़े हुए थे । तब वहाँ से सामने वाले घर में उसकी नजर पड़ी देखा तो उस घर में गौचरी = भिक्षा के लिए आए हुए मुनि को देखा, जो संयम को रखते हुए थे...और तब ऐसा देखकर इलापुत्र को भावधर्म की भावना सें केवलज्ञान हुआ । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002556
Book TitleSirikummaputtachariam
Original Sutra AuthorJinmanikyavijay
AuthorChandanbalashreeji
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages194
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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