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________________ ९७ धर्मदेव-कूर्मापुत्र चरित्र भावधर्म का माहात्म्य १२६. (योग्य उम्र में) पाठशाला में कुमार अपने बुद्धिबल से ७२ कलाओं का शिक्षण पा लेता है । कलाचार्य तो साक्षी मात्र बन कर रह गए थे । १२७. पूर्वभव में कूर्मापुत्र ने अन्य छोटे छोटे बच्चों को ऊछालने 'से जो कर्म बाँधा था, उसके फलस्वरूप इस भव में वह वामन हुआ था । १२८. फिर भी अपने अनुपम रूप-गुण से कुमार युवतीयों के मन को मोहित कर रहा था । क्योंकि वह भाग्यवन्त था, सौभाग्यवन्त था। १२९. युवावस्था-जवानी में तो सब लोगों को विषयविकार पेदा होते है किन्तु कूर्मापुत्र कुमार, युवा होने पर भी विषयविरक्त था । चूँकि वह तत्त्वों का ज्ञाता था । १३०-१३१. काम विकारों ने तो हरि-हर-ब्रह्मा जैसे सभी देवों को भी परास्त किए है । जब कि कूर्मापुत्र ने तो काम विकारों को परास्त किया है । धन्य हो कूर्मापुत्र ! (१३१) आपनें अपने गतभव में चारित्रधर्म का इतना सुन्दर पालन किया था कि अब प्राप्त भव में युवावस्था में भी आप विषयों से विरक्त हो । ॥ कूर्मापुत्र को केवलज्ञान भावधर्म का प्रभाव ॥ १३२. किसी दिन-(नगर में) मुनि (पधारे थें । उन्ही) के स्वाध्याय के दरमियाँ, कुमार ने 'श्रुत' = शास्त्रो को सुना, और उसे पूर्वभव का ज्ञान = जातिस्मरणज्ञान हुवा । १३३-१३४. अपने गतभव में आचरण किए हुए साधुधर्म की स्मृति सें, साधु के गुणों के कारण, कुमार ने अब संसार की असारता को पहचानी । और गृहस्थ वेष में ही रह रहे कूर्मापुत्र कुमारने क्षपकश्रेणि (कर्मों का क्षय करनेवाले ध्यान की धाराविशेष) में Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002556
Book TitleSirikummaputtachariam
Original Sutra AuthorJinmanikyavijay
AuthorChandanbalashreeji
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages194
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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