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कूर्मापुत्रचरित्र कही है-'उसमें यह प्रथम स्थान श्रमणभगवन्त महावीरदेव ने फरमाया है-सर्व जन्तुओं के प्रति निपुणता के साथ की गई अहिंसा ही संयम है । (११७) उपदेशमाला ग्रन्थ में श्रीधर्मदासजी गणि भी यह ही तथ्य को ऊजागर करते है कि जो षड्रजीवनिकाय के प्रति दयाविहीन है-वह साधु भी नही है । और गृहस्थ भी नही है। जो यतिधर्म से भ्रष्ट होता है । वह
गृहस्थ धर्म से भ्रष्ट होता है । (११८) ११९. इस तरह मुनिवर के मेघगर्जना समान गम्भीर वचन सुनते ही
रानी का मनमयूर उल्लसित-आनंदित हो ऊठा । ॥ कूर्मापुत्र का जन्म कर्मवश वामनता, संस्कार के कारन वैराग्य ॥ १२०. गर्भावस्था के दिन पूरे हुए, दोहद भी सफल हुए, और शुभ
दिन तथा शुभ लग्न समय पर, कूर्मादेवी ने पुत्ररत्न को जन्म
दिया । १२१-१२२. पुत्र जन्म के अवसर पर बड़ा उत्सव हुआ, बाजे बजने
लगे तड...तड...तडातड...की आवाज आकाश में गूंजने लगी । श्रेष्ठ भेरी-भोंये, नगाड़े के नाद भी गाजने लगे । (१२२) बन्दी लोग प्रशस्तियाँ गाने लगे है । प्रवीण कलाकर-आनन्द मग्न है;
सुन्दरीयाँ मनहर नृत्य करती है । १२३. माता को धर्मश्रवण की इच्छा हुई थी-अत: माता-पिताने अपने
पुत्र का नाम 'धर्मदेव' ऐसा गुणान्वित सार्थक नाम रक्खा । १२४. परिवार के लोग दुलार से कुमार को 'कूर्मापुत्र' कहा करते थे
तो कुमार का 'कूर्मापुत्र' एसा लाड़ला मुँहबोला नाम भी था । १२५. पाँच धाव कुमार को हाथोंहाथ लेकर, अपनी अपनी गोद में
बिठाकर लाड़ लड़ा रही थीं...-कुमार सब धाव-माँताओं का लाडला था ।
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