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________________ ९५ धर्मदेव-कूर्मापुत्र चरित्र भावधर्म का माहात्म्य १०८. गर्भ-कुक्षि में आए हुए जीव के प्रभाव से, शुभ पुण्य का उदय से होने से, रानी को परम सौभाग्यवन्त धर्म श्रवण का दोहद हुआ। १०९. राजाने कूर्मारानी के धर्म श्रवण हेतु, नगर में षड्दर्शनों के ज्ञाता पुरुषों को आमन्त्रित किए । ११०. दर्शनशास्त्रों के ज्ञानी पुरुष क्रमशः स्नान-बलिकर्म-कौतुकमंगल इत्यादि शुभ कार्यो को करने के बाद, अपने अपने धर्मग्रन्थों को लेकर, राज भवन में उपस्थित हो गए । १११. राजा को आसीस देते हुए पण्डित लोग, राजा की ओर से मान सन्मान होने पर, सुखासन पर बेठे और अपने अपने धर्म को सुनाते है। ११२. सभी दर्शनियों के 'हिंसामय धर्म को सुनकर रानी-जो जिनधर्म के अनुरागवाली थी-नाखुश हो गई-क्योंकि ११३-११४. दान देवें, मौन रक्खें, वेद वगैरह शास्त्र पढ़ें, देव का ध्यान धरें, अगर दया का पालन न करें तो सबकुछ व्यर्थ है, (११४) और जब दया ही नही है-तब दीक्षा भी वास्तव में दीक्षा नहीं है। भिक्षा भी भिक्षा नहीं है । दान भी दान नहीं है । तप भी तप नहीं है । ध्यान भी ध्यान नहीं है। और मौन भी मौन नहीं है !! ११५-११८. एवं प्रकार से बिना दया के धर्म के निरूपण से रानी खिन्न हुई । तब राजाने महागुणवन्त जैनाचार्य को बुलवाए; उन्होंने 'जिन सिद्धान्त के तत्त्वों का सारांश स्वरूप (दया-अहिंसामय) धर्म सुनाया । (११५) कि षड्जीवनिकाय का पालनरक्षण ही धर्म है। जैन श्रमणों के पाँच महाव्रतों में प्राणातिपात (हिंसा का) विरमण (त्याग) प्रथम व्रत है। (११६) यह ही बात दशवैकालिकसूत्र में Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002556
Book TitleSirikummaputtachariam
Original Sutra AuthorJinmanikyavijay
AuthorChandanbalashreeji
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages194
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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