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________________ ९४ कूर्मापुत्रचरित्र ९८. महेन्द्रसिंह राज को रानी कूर्मादेवी रूप की समृद्धि से देवांगना जैसी थी । और विनय विवेक प्रमुख गुण - आभरण से मण्डित थी। ९९. विषयसुखों में मग्न उन दोनों का समय इन्द्र-इन्द्राणी और कामदेव - रति की तरह सुख में पसार हो रहा था । १००. कोइ एक दिन अपनी शय्या में अर्धजागृत अवस्था में देवी ने स्वप्न में अद्भुत मनोरम सुरभवन देखा । १०१. सुबह होते ही रानी अपनी सेज से ऊठ, राजा के पास जाती है और मधुर वचनों से राजा को कहती है कि १०२. हे स्वामि ! हे आर्य ! मैंने आज सपनें में सुरभवन देखा है। इस स्वप्न का फल क्या होगा ? १०३. रानी की यह स्वप्न की बात सुनते ही राजा खुश हो गया । रोमाञ्चित हो ऊठा । और अपनी मति के मुताबिक सोचकर स्वप्न के फल दर्शक वचन कहें १०४. हे देवी ! नव माह और साढ़े सात दिनों के बाद, आप जगत को आनन्द देनेवाले नेत्रों जेसे प्रिय गुणवन्त और लक्षणवन्त पुत्ररत्न को प्राप्त करोगी । १०५. राजा के ऐसे शुभ वचनों को सुनकर खुश मिजाज हो कर राजा की अनुमति से कूर्मादेवी रानी वास में चली गई । १०६. तब ही उसी वक्त ही, दुर्लभकुमार की पुण्यशाली आत्मा, देव लोक की आयु पूर्ण कर के, कूर्मादेवी की कुक्षि में आई; मानों 'सरोवर में राजहंस आया हो । १०७. रत्नो की खान रत्नों सें और सीप मोती सें, सुन्दर लगने लगती है उसी तरह रानी भी उस गर्भ से सुन्दरतम लगने लगी...!! Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002556
Book TitleSirikummaputtachariam
Original Sutra AuthorJinmanikyavijay
AuthorChandanbalashreeji
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages194
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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