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धर्मदेव - कूर्मापुत्र चरित्र भावधर्म का माहात्म्य
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पास पहुँच गई, तब वह दूसरें कुमारों और राजकुमारों को भी ऊछाल ऊछाल खेल रहा था । यक्षिणी यह देखकर कुछ हंस कर बोली- 'इस रांक' कुमारो के साथ खेलने में कया ? तुम्हारे चित्त में कुछ विचित्र कुतूहल है, तो मेरे पीछे दोडना शरू करो। यह सुन कर कुमार कुतूहल से कन्या के पीछे पीछे दोड़ने लगा, आगे आगे दोड़ती वह कन्या (के रूप में यक्षिणी) कुमार को अपने वनमें ले गई । वहाँ से बरोह ( वड़वाई) के झुंड के कारन गहेरे, विशाल वड के पेड़ के नीचे तहखाने के रास्ते में पाताल की भीतर अपने सुरभवन में ले गई ।
२५. वह सुरभवन कितना सुन्दर था ? देखिए - सुरभवन के अन्दर सुन्दर, प्रकाशमान - रत्नस्तम्भो की हारमाला थी । स्तम्भो के कोने के उपरि हिस्सो में, अपने तेज-पुंज से सुर भवन को झगमगाते हुए, तरह-तरह के रंगीन मणियों से बने हुए तोरण
थें ।
२६. रत्नस्तम्भो के उपर पुतलीया थी - जो विविध क्रीडा को प्रदर्शन हेतु, विविध अंग-मरोड़ करती हुई । लोगों को चमत्कृत कर रही थी । एसे सुरभवन में गोरव - गवाक्ष भी बहोत सुन्दर थेंबड़ें दिल वलुभाने वाले थें, क्योंकि वहाँ फल-पौधे वगेरह के मनहर चित्रांकन किए गए थें ।
२७-२८. राजकुमार दुर्लभ, इस अद्भुत सुरभवन देख आश्चर्य सें सोच में पड़ गया - कि यह सुरभवन क्या इन्द्रजाल है ? या मुझे कोई स्वप्न आया हुआ है ? अगर यह सुरभवन एक वास्तविकता है; तो मेरे नगर से यहाँ मुझे कौन ले आया ?
२९ - ३१. कुमार को इस तरह संदेह में देखकर भद्रमुखी ने पलंग में बिठा कर कहा - हे स्वामि ! मेरी बात सूनो - (३०) मैंने आप को
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