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________________ ३३. कूर्मापुत्रचरित्र बडे दिनों के बाद देखा है । और मैं ही मेरे अपने आपके प्रेम के कारण, आप को इस सुरभित-सुगंधित बन के भीतर सुरभवन में ले आई हूँ। (३१) आज ही मेरे मनोरथ वृक्ष को फल लगने लगे है । मेरे सुकृत के प्रभाव से आप मुझे मीला गये हो। ३२. भद्रमुखी के ऐसे वचन सुनने के बाद, स्नेह सभर मुख को निरखते निरखते राजकुमार के मनमें पूर्वजन्म का स्नेह ऊभर आया। तब कुमार को ऐसा ऊहापोह-तर्कवितर्क भी होने लगा, कि मैंने इस यक्षिणी को कहीं न कहीं देखा है । और मैं उसका परिचित-पहेचानवाला भी हूँ। तब कुमार को जातिस्मरण (=पूर्वभव का) ज्ञान हुआ । ३४-३६. जातिस्मरणज्ञान के कारण कुमार ने अपने पूर्व जन्म को जाना। और पूर्वजन्म की अपनी प्रिय पत्नी यक्षिणी को पूर्वभव की बात कही । (३५) तब यक्षिणी ने अपनी वैक्रिय (=पुद्गलों में चय-अपचय करके कुछ नया सर्जन या विसर्जन करने की) शक्ति से कुमार के तन में से अशुभपुद्गलों को हटा दीए और शुभ पुद्गलों का निवेश किया । (३६) और पूर्वभव की पत्नी होने से बिना संकोच विषय सुख भुगतने लगी'इसी तरह दोनों विलास करने लगें । यहाँ देवी और मनुष्य के बीच संवास (=कामभोग) के प्रसंग से कवि आगम का सन्दर्भ देते है कि स्थानांग आगम के (४-४-३५३) सूत्र में संवास का चार (प्रकार) विधा दिखाई गई है-जैसा कि "चार स्थानों से देवो में संवास सम्भव है। (१) देव और देवी के बीच, (२) देव और 'छवि' Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002556
Book TitleSirikummaputtachariam
Original Sutra AuthorJinmanikyavijay
AuthorChandanbalashreeji
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages194
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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