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बाद, अपनी आयु के ९२ वें वर्ष में, वे कैवल्य दशा में लीन हो गये । और फिर ८ वर्ष उस दशा में व्यतीत कर, १०० वर्ष की पूर्णायु में निर्वाण पद को प्राप्त हुए ।
भगवान् महावीर के निर्वाण के २० वर्ष बाद, सुधर्म गणधर का निर्वाण हुआ और उसके बाद ४४ वर्ष अनन्तर अर्थात् महावीर निर्वाण बाद ६४ पीछे, जम्बूस्वामी का निर्वाण हुआ । इस हिसाब से जम्बूस्वामी ५२ वर्ष तक निर्ग्रन्थ श्रमणसंघ का नेतृत्व करते रहे । उनकी पूर्णायु कितनी थी इसका कोई स्पष्ट उल्लेख देखने में नहीं आया । पर कल्पना से अनुमान किया जाय तो कम से कम ८२-८४ वर्ष जितनी आयु तो उनकी होनी ही चाहिए। भगवान् के निर्वाण बाद, १२ वर्ष अनन्तर, सुधर्म गणधर कैवल्य दशा में लीन हो गये तब उनने अपने श्रमणसंघ का गणभार जम्बू मुनि को सौंप दिया । उस समय कम से कम १० वर्ष जितना दीक्षापर्याय उनका मान लिया जाय तो, दीक्षा लेने के पहले उनकी आयु कम से कम १८-२० वर्ष की तो होनी ही चाहिए । जिस अवस्था में उनने गृहजीवन का त्याग किया और जिन संयोगों का अनुभव किया वह १८-२० वर्ष की कम आयुवाले जीवन में सम्भव नहीं होता । अतः हमारी कल्पना से जम्बू मुनि का आयुष्य कम से कम ८२-८४ वर्ष जितना अवश्य होना चाहिए ।
जम्बू मुनि के कथानक विषयक प्राचीनतम कुछ उल्लेख श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य 'वसुदेवहिंडी' नामक बृहत् प्राकृत कथाग्रन्थ में उपलब्ध होते हैं । 'जंबूअज्झयणं' 'जंबूपइन्नयं' आदि कुछ स्वतन्त्र प्राकृत रचनाएँ भी मिलती हैं, पर उनके रचना समय आदि के बारे में विशेष निश्चायक प्रमाण अभी तक संगृहीत नहीं हुए । प्रस्तुत 'जंबुचरियं' इस विषय की एक विशिष्ट और विस्तृत रचना है । इसके कर्ता गुणपाल नामक मुनि हैं जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय के नाइलगच्छीय वीरभद्रसूरि के शिष्य या प्रशिष्य थे । प्रस्तुत 'चरियं' की रचना कब हुई इसका सूचक कोई उल्लेख इसमें नहीं किया गया है । पर ग्रन्थ की रचनाशैली आदि से अनुमान होता है कि विक्रम की ११ वीं शताब्दी में या उससे कुछ पूर्व में इसकी रचना हुई होगी। जेलसमेर में प्राप्त ताडपत्र की प्रति के देखने से ज्ञात होता है कि वह १४वीं शताब्दी के पूर्व ही लिखी होनी चाहिए।
चरित की ग्रथनशैली उद्योतनसूरि की प्रसिद्ध 'कुवलयमालाकहा' के साथ बहुत मिलती-जुलती है । वर्णनपद्धति भी प्रायः वैसी ही है । सम्भव है कि गुणपाल मुनि के सम्मुख, प्रस्तुत 'चरियं' की रचना के समय, कुवलयमाला की प्रसिद्धि बहुत कुछ रही हो। उद्योतनसूरि ने सिद्धान्तों का अध्ययन वीरभद्र नाम के आचार्य के पास किया था । इन वीरभद्र आचार्य के लिए उनने “दिन्नजहिच्छियफलओ अथावरो कप्परुक्खो व्व' ऐसा वाक्य प्रयोग किया है । जम्बुचरियं के कर्ता गुणपाल ने अपने गुरु प्रद्युम्नसूरि को वीरभद्र का शिष्य बतलाया है। इनने इन वीरभद्र के लिए भी 'परिचिंतियदिन्नफलो आसी सो कप्परुक्खो त्ति'
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