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उस समय से लेकर, आज तक जो जैन धर्म प्रवर्तमान रहा वह जम्बू मुनि ही के शिष्यसमुदाय के उपदेश और आदेश का परिणाम है ।
भगवान् महावीर के निर्वाण बाद, बहुत ही अल्प समय में जैनधर्म दो मुख्य सम्प्रदायों में विभक्त हो गया जिनमें एक श्वेताम्बर सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ और दूसरा दिगम्बर सम्प्रदाय के नाम से । पर इन दोनों सम्प्रदायों में जम्बू मुनि का स्थान एक सा ही मान्य और वन्द्य है । दोनों ही सम्प्रदायों के पूर्वाचार्यों ने जम्बू मुनि की कथा को नाना रूपों में ग्रथित किया है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मान्य प्राचीनतम आगम ग्रन्थों में जम्बू मुनि का सर्वत्र निर्देश मिलता है। भगवान् महावीर जब विद्यमान थे तब जम्बू मुनि दीक्षित नहीं हुए थे । महावीर के निर्वाण के बाद उनने सुधर्म स्वामी के पास श्रमणधर्म की दीक्षा ली थी । गणधर सुधर्म ने भगवान् महावीर के उपदेशों और सिद्धान्तों का सर्वसार, जम्बू मुनि को सुनाया एवं समझाया और इसलिये प्राचीनतम जैन आगमो में सर्वत्र सुधर्म और जम्बू मुनि के नाम निर्देश के साथ ही सब विचार और सिद्धान्त उल्लिखित किये गये हैं।
___ भगवान् महावीर के मुख्य ११ शिष्य थे जो गणधर कहलाते थे। इनमें से ९ तो भगवान् के जीवितकाल ही में निर्वाण प्राप्त हो गये थे । सबसे बड़े शिष्य इन्द्रभूति गौतम
और ५ वें शिष्य सुधर्म भगवान् के निर्वाण समय में विद्यमान थे । इन्द्रभूति गौतम भगवान् के निर्वाणगमन के बाद तुरन्त कैवल्य दशा में लीन हो गये, अत: सब श्रमण समुदाय की रक्षा, शिक्षा और दीक्षा का समग्र भार सुधर्म गणधर को वहन करना पड़ा । इन्हीं सुधर्म के पास राजगृह के निवासी अत्यन्त समृद्धिशाली ऋषभदत्त सेठ के एकमात्र पुत्र जम्बू कुमारने अपने जीवन के यौवनारम्भ में ही श्रमण धर्म की कठिनतम दीक्षा ले ली । जम्बू कुमार का यह दीक्षाग्रहण बड़े अद्भुत और रोमाञ्चक प्रसंग द्वारा घटित हुआ इसलिए गणधर सुधर्म के आज्ञावर्ती समग्र निर्ग्रन्थ श्रमण समूह का नेतृत्व जम्बू मुनि को प्राप्त हुआ ।
भगवान् महावीर के निर्वाण बाद, १२ वर्ष पर्यन्त, सुधर्म गणधर ने श्रमणसमूह का नेतृत्व किया । इसी बीच में जम्बू दीक्षित हुए और अपने विशिष्ट चारित्र्यबल और ज्ञानबल से थोड़े ही समय में वे सुधर्म गणधर के अनुगामी श्रमणगण के विशिष्ट नायक के रूप में प्रतिष्ठित होने लगे । भगवान् महावीर के निर्वाण के १२ वर्ष बाद, सुधर्म गणधर भी कैवल्य दशा में लीन हो गये और उनने अपने समग्र श्रमण गण के नेतृत्व का भार जम्बू मुनि को सौंप दिया । ८ वर्ष कैवल्य अवस्था में लीन रह कर सुधर्म स्वामी ने निर्वाणपद प्राप्त किया। पर्वाण के समय सुधर्म स्वामी की आयु पूरे १०० वर्ष की थी ! उनने अपनी आयु के ५० वें वर्ष में भगवान् महावीर के पास श्रमणधर्म की दीक्षा ली थी । ३० वर्ष तक वे भगवान् महावीर की सेवा उपासना करते रहे । भगवान् के निर्वाण के बाद, ८० वर्ष की आयु में निर्ग्रन्थ श्रमणों के संघ की सम्पूर्ण सुव्यवस्था का भार उनको उठाना पड़ा । १२ वर्ष
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