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________________ सद्धर्मकी प्ररूपणा-अमृतसरमें पूज्यजी अमरसिंहजीसे पूज्य गुरुदेवके, सत्यधर्म प्ररूपणायुक्त उपदेश विषयक-बोलचाल रूप कलहके फल स्वरूप और दिल्ही-बडौतादि-ग्राम-नगरादिमें पूज्यजी द्वारा आपके विरुद्ध किए गए प्रत्यक्ष प्रचारके कारण अब आपने प्रच्छन्न रूपसे उपदेश देना त्यागकर प्रकट रूपसे शुद्ध धर्मकी प्ररूपणा 'जिन प्रतिमा न पूजने की विरुद्ध एवं ढूंढ़क परंपरा, साधुवेशादिके सत्य स्वरूपका उपदेश देना अंबालासे प्रारम्भ किया।" विशिष्ट शास्त्रीय प्रमाणोंके ज्ञान प्रकाश और प्रतिभा प्राचुर्यसे जैसे शेर गर्जना करते हुए अबोध जनताकी गहरी निंद हटाकर ज्ञान गंगामें स्नान कराते हुए शुद्ध और पवित्र किया। आपके प्रवचनोंसे प्रभावित अनेक लोगोंने सनातन जैन धर्मको पूर्ण श्रद्धासे स्वीकारा। पंजाबका प्रत्येक क्षेत्र आपके स्वागत के लिए लालायित बना। पूज्यजीके मेजरनामा (प्रतिवाद-पत्र) प्रकरण, भक्तोंको मूर्तिपूजा विरुद्ध उकसानेके भरसक प्रयत्न, अपनी आम्नायके साधुओंको न मिलने देनेका नियम करवाना, श्रावक भक्तोंको श्री आत्मारामजी म.को. गौचरी-पानी-वसति (आहार-पानी-स्थान) न देनेका आदेश---आदि हर प्रकारसे हाथ-पैर मारनेके बावजूदभी पूज्यजी अपनी डूबती नैयाको बचा न सके। श्री आत्मारामजी म.का सच्चे जिनशासनकी प्रभावनारूपी जहाज़ अविरत गतिसे ध्येय प्राप्तिकी और प्रगतिमान था। हज़ारो भाविक भक्त उसमें बैठकर भवरूप समुद्र पार करने के लिए अत्यंत उत्कंठित हो उठे थे। बचपनसे ही उल्टे प्रवाहमें तैर कर अन्योंका उद्धार करने के वीरत्व और साहसपूर्ण जन्मजात स्वभाववाले श्री आत्मारामजी महाराजने अनेक विटम्बना-विरोधों के अवरोधादि आंधी-बवंडरके सामने अथक परिश्रम पूर्वक बड़ी धीरता-वीरता-गंभीरतासे हज़ारों ढूंढ़क पंथके मलिन संस्कार वासित अज्ञानी श्रावकोंको शुद्ध-संपूर्ण श्रद्धासे प्राचीन जैन धर्म परंपरामें प्रविष्ट करानेका श्रेय प्राप्त किया। जैसे विरोधकी हवा टिमटिमाते दीपकको नामशेष कर सकती है, लेकिन धगधगायमान अग्निको तो अधिकाधिक प्रदीप्त करनेका ही कारण बनती है। यह गौरवान्वित चित्रण निम्न शब्दोंमें अंकित है- “श्री आत्मारामजीके सत्यनिष्ठ आतमबल पर अवलम्बित क्रान्तिकारी धार्मिक अंदोलनने ढूंढ़क मतके अभेद्य किलेको छिन्न भिन्न कर दिया.........लगभग दस वर्षके (१९२१ से १९३१) इस क्रान्तिकारी धार्मिक आंदोलनोंमें उन्हें जो सफलता प्राप्त हुई उसकी साक्षी पंजाबके गगनचुंबी अनेकों जिनालय और उनके सहस्त्रों पूजारी हमें प्रत्यक्ष रूपमें दिखाई दे रहे है ।" पाखंड, शिथिलता और अविद्याके अंधकारके एक मात्र विदारक, सद्धर्मके प्रचारक और प्रसारक विरल विभूति श्री आत्मारामजी महाराजजीका यथार्थ चित्रण दृष्टव्य है--- “छूटा था देवपूजन और भक्ति भावना भी, यह भी खबर नहीं थीं, क्या धर्म है बिचारा ? इस देशमें कहीं भी, कोई न जानता था, होता है साधु कैसा जिन धर्मका दुलारा ? ऐसे विकट समयमें अनेक आपत्ति और विरोधका सामना करना और जनधर्मके सच्चे स्वरूपका प्रचार करना इसी माईके लालकी हिम्मत थी ।" ३३ तभी तो कहा जाता है कि विरोध ही महान पुरुषोंकी धीरताकी कसौटी है। कई सालोंसे आदर्श जैनधर्म पर सर्वेसर्वा अधिकार जमानेवाले ढूंढ़क पंथके बादल आच्छादित थे। उन घने बादलोंको अनिलवेगी श्री आत्मारामजी म.सा. एवं उनके वीर साथियों ने क्षत-विक्षत कर बिखेर दिया Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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