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शंकाओंसे व्युत्पन्न संघर्षने उन्हें बेचैन बना दिया। मनोसाम्राज्यकी विचार संततिने, पटवा वैद्यनाथ एवं मुनि फकीरचंदजीकी अमृत तुल्य-संस्कृत, प्राकृतके व्याकरणाभ्यास करनेकी-हितशिक्षा और काव्य, कोष, छंदालंकार, व्याकरणादिको व्याधिकरण माननेकी बेइलमीके मध्य तुलना करते करते सत्य गवेषक आत्मा के विवेक-चक्षु उद्घाटित हुए;२५ तब उन्होंने अनुभव किया कि इस मूर्तिपूजा विरोधी समाजसे अधिक प्राचीन, अन्य मूर्तिपूजा समर्थक और पंचांगी स्वरूप पैंतालीस आगमोंकी रचना एवं अनेकों गच्छ-सम्प्रदायोंके पूर्वाचार्यों रचित अनेक संस्कृत-प्राकृत साहित्यसे अत्यधिक समर्थ व समृद्ध समाज है। इनमें से जैनत्वका सच्चा प्रतिनिधित्व कर्ता किसे माना जाय ? और किसे अपनाया जाय? सत्यकी झाँकी और श्री रत्नचंद्रजीका विशिष्ट सहयोग---ज्ञान प्राप्तिमें बाधक साम्प्रदायिक रूढ़ियोंकी दिवारें और अपने पूज्य गुरुजीके निषेधोंकी परवाह किये बिना सच्चे पथिकका अन्वेषण, त्रिकालदर्शी सर्वज्ञ प्ररूपित अनंतज्ञान राशिकी ओर प्रवृत्त हुआ।२६ फलतः व्याकरण-न्यायादिका अभ्यासः विहारमें आनेवाले विभिन्न स्थानोंके ज्ञानभंडार स्थित अनुपम श्रुतवारिधिका पान; जैन संस्कृतिको गौरवान्वित बनानेवाली हजारों भव्य प्रतिमायें और अनेक प्राचीन विशाल जिनमंदिरादिके निदर्शन;२७ देशुग्रामसे प्राप्त श्री शीलांकाचार्य कृत 'श्री आचारांग सूत्रकी टीका'का अध्ययन;८ उन सबके शिरमौर रूप, श्री रत्नचंद्रजी म.से आग्राके चातुर्मासमें प्राप्त अनेक शंकाओं के समाधानकारक एवं आत्मोल्लासको वृद्धिगत करनेवाला सत्य-शुद्ध-असंदिग्ध आगमज्ञान व मनमें उठनेवाली प्रत्येक उलझन एवं चर्चास्पद विषयोंका युक्तियुक्त सुलझाव-इन सबने श्री आत्मारामजीके अंतरात्माकी निश्चल आस्था प्राचीन आदर्श और निर्मल शास्त्र सिद्धान्तोंकी ओर दृढ़ कर दी। साथियोंसे परामर्श---मुनिश्री रत्नचंद्रजीके संपर्क पश्चात् उनकी ही हितशिक्षा के प्रभावसे सत्यनिष्ठ श्री आत्मारामजीने प्रभु-प्रतिमाकी निंदा अपवित्र हाथोंसे शास्त्रोंके स्पर्शका त्याग किया और ढूंढक वेशमें ही गुप्त रूपसे मंद फिर भी निश्चल गतिसे प्रचार-प्रसारके लिए अपने सहयोगी-साथी श्री विश्नचंदजी आदि साधुओंको भगवान श्री महावीर द्वारा प्ररूपित आदर्श जैन धर्मकी प्राचीनताकी, द्रव्य
और भावसे आदर्श मूर्तिपूजा की, जिन प्रतिमा एवं जिनमंदिरों की विधेयात्मकताकी प्रतीति; स्थानकवासी साधुवेश एवं मुंहपत्ति विषयक निरूपण तथा भ. महावीर स्वामीकी गच्छ परंपरामें ढूंढक संप्रदाय का स्थान (“है ही नहीं"-यह बात)-इन सबका अनेक मूल-आगम ग्रंथो और तत्संबंधी पंचांगीरूप अनेक शास्त्रीय ग्रन्थोंके संदर्भ पाठोंकी शास्त्रीय चर्चासे संतुष्ट करके; सत्य तथ्यके अन्वेषणकी ओर मोड़कर मन परिवर्तन द्वारा जैन धर्मके सच्चे राह पर स्थिर किया एवं दृढ़ आस्थावान बनाया।
_ वि.सं. १९२१ के मालेर कोटलाके चातुर्मासमें शास्त्रीय दृष्टि और तटस्थ मनोवृत्तिसे अपने साथियों को तैयार करके अर्थात् सर्वेसर्वा विशुद्ध जैन धर्मानुगामी मानसधारी बनाकरके सज्ज करनेके पश्चात् चातुर्मासकी समाप्तिके समय ढूंढक वेशान्तर्गत ही गुप्त रूपसे शुद्ध श्रद्धानयुक्त सम्यक धर्म के प्रचार-प्रसारके निर्धारित कार्यके लिए कटिबद्ध किये; परिणामतः इन्हीं साधुओंके एकनिष्ठलगनयुक्त सहयोगसे भविष्यमें गंतव्य स्थानको प्राप्त कर सकें।
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