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________________ कल्याणकारी, जीवनोन्नतिमुख उत्तम-आध्यात्मकी पुनित प्राप्ति; सच्ची सुख प्राप्तिका सच्चामार्गत्यागमार्ग; जिस फकीरीके घुमक्कड, कठोर तप और त्यागमय, कठिनतम जीवनको अपना कर रंक से राय, जीव से शीव, छोटे से बड़े तक प्रत्येक व्यक्ति अनंत-अव्याबाध-अक्षय सुखमय परमपद प्राप्त करते है वह साधु जीवन। दीक्षाग्रहण---आपके दृढ़ निश्चयको जानकर एवं अनुभव करके ममतामयी माता और वात्सल्य मूर्ति धर्म पिता-परिवार-मित्र-स्नेहीजन-सभी हार मान गये। सभीने अंतरके हार्दिक आशीर्वाद-शुभ कामनाओंके साथ संन्यस्त जीवनके लिए संमति देकर अपने लाड़लेको विदा किया। माता-पिता-परिवारकी संकीर्ण परिधिमें से मुक्त विश्व संकुलके लाडले आत्मारामने अहिंसा-सत्यादिकी ज्वलंत ज्योतरूप पंच महाव्रत धारणकर स्वनाम सार्थक-उज्ज्वल, धन्य व महान बनानेके लिए साधु जीवनको अंगीकृत कियावि.सं. १९१०। मृगशिर शुक्ल पंचमी तदनुसार ई.स. १८५३।" ममतामयी माता के संतोषपूर्ण अनराधार बरसते आशिषके बल पर, ढूंढक गुरु श्री जीवनरामजीका शिष्यत्व स्वीकार कर आत्मारामजीने अहिंसा-सत्यादिकी बुलंदीवाले उत्तम जीवन राह पर त्रिविध त्रिविध आत्म समर्पण कर दिया और बन गये मुनि श्री आत्मारामजी महाराजा ज्ञानार्जनकी अभिरुचिके जो बीज बचपनमें बोये गये थे, अब मस्तिष्क धराको फोड़कर अंकुरित हो रहे थे। शनैः शनैः छोटेसे गमलेमें से एक विशाल वटवृक्ष बननेको लालायित हो रहे थे। दीक्षोपरान्त तुरंतही विद्या व्यसनी इस नवयुवकने अपनी सारी शक्ति ज्ञानार्जनमें ही लगानी प्रारंभ की। ज्ञान पिपासा तृप्ति एवं संयमाराधनार्थ सतत परिभ्रमण---ज्ञान प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा, तेज़ याददास्त और स्वच्छ-निर्मल बुद्धिसे-अभ्यास नैया अनेक विद्वान साधु एवं गृहस्थ रूपी पतवार के सहारे ज्ञान महार्णवकी तरंगो पर शीघ्रगतिगामी लक्ष्यबिन्दु तक पहुँचने के लिए बावली बन रही थी। पल मात्र भी प्रमादका सेवन अध्ययन-रत आत्माको कैसे सुहाता ? अग्निमें ईंधनकी भाँति ज्ञान क्षुधासे पीड़ित आत्माको कितना भी पढ़े संतुष्टि कहाँ ? प्रत्युत, जितना पढ़े उतनी लगन बढ़ती जाती थी। आपके गुरुश्री जीवनरामजी म. इतने अधिक ज्ञान सम्पन्न तो थे नहीं कि इस ज्ञान क्षुधाग्निको संतुष्ट कर सकें। २" इसी कारणवश आपको ज्ञान प्राप्तिके लिए तनतोड़-अविरत-अद्वितीय, प्रयत्न-परिश्रम और प्रवास करने पड़े। जहाँ कहीं, किसी भी ज्ञानीका जिक्र हुआ, किसी कोने में भी ज्ञान-प्राप्तिके आसार मिले, आप तुरंत वहाँ पहुँच जाते और उस अमूल्य ज्ञान-वारिका पान करते नहीं अघाते। ज्ञानामृत पानके लिए तो वे विश्वके कोने कोने में जानेको तत्पर थे। पाँच वर्षमें ही साधिक दस हज़ार श्लोक कंठस्थ करके, ३२ आगम शास्त्रोंकी थाह पाकर-सकलागम पारगामी बनकर तत्कालीन समाजके अनेक प्रतिष्ठित विद्वान ढूंढ़क साधुओंकी पंक्तिमें स्थान पाना-उनकी बुनियादी, ठोस विद्वता का कीर्ति कलश था। स्थान-स्थान पर गंभीर ज्ञान-गरिमाके स्वामीके चर्चे होने लगे थे, लेकिन इस सम्मान युक्त कीर्ति पताकाने उन्हें प्रसन्न करने के प्रत्युत अधिक असमंजस भरी उदासीनता और उलझनमें उलझा दिया। मनघडंत पंचायती अर्थोंके आलाप और 'टब्बा के अस्पष्ट अर्थों के कारण मनमें उभर रही (56) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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