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संयमकी शेर-गर्जना से शिथिलता, जड़ता, पाखंड़के युगव्यापी अंधकारके एक मात्र विदारक, नवयुग निर्माता, यथानाम तथा गुणोपेत, चूंबकीय आध्यात्म शक्तिके स्वामीका-उदीयमान दिनकर जैसे पृथ्वीके श्री और सौंदर्यको वर्धमान करनेवाले देवरूपधारी बालक 'आत्मा' का-परमोत्तम और महामंगलमय चैत्र मासकी शुक्ल प्रतिपदा-वि.सं.१८९४ (गुजराती-वि.सं.१८९३)-तदनुसार ई.स.१८३६ गुरुवार-पंजाब स्थित जीरा तहसिलके लहरा गाँवकी पावन धरा पर अवतरण हुआ। माता-पिता और स्नेहीजनोंके लाडप्यार और पारिवारिक सुखमें झुलता बचपन ----
__ “होनहार बिरवानके होत चिकने पात”-लोकोक्ति अनुरूप आपका वदनकमल विशिष्ट तेज, अद्भूत कान्ति और स्वभावसिद्ध प्रभाविकताके कारण मूल्यवान हीरेकी तरह चमकता था; तो प्रकृतिकी गोदमें पलनेवाले नैसर्गिक शारीरिक सौष्ठव प्राप्त उनका अनुपम लालित्य भी जन-मनको अपनी ओर आकर्षित करनेवाला था। उनके अवतारी जीवने उस समय मानवाकार धारण किया, जब धार्मिक तत्त्वोंका संहार हो रहा था, लोग धर्मसे विमुख होते जा रहेथे। सद्धर्म प्रकाशक और प्रचारक विरले ही थे। पाखंड़-शिथिलता और अविद्याका अंधकार विस्तृत होता जा रहा था। तत्कालीन ग्राम्यजीवनकी छबि अंकित करता हुआ रेखाचित्र दृष्टव्य है-यथा- “उस समयके तरुण दिनभर खेला करते थे । प्रकृतिका अनाच्छादित विस्तीर्ण प्रांगण ही उनका क्रीडास्थल होता, सूर्यकी जीवनदायिनी किरणें ही उनकी त्वचाके लिए पौष्टिक विटामीनका काम देतीं, नदीमें सतत बहनेवाला शीतल-स्वच्छ जल उनका स्फूर्तिवर्धक पेय होता, गाँवके खेतोंमें उत्पन्न होनेवाली हरी-हरी ताज़ा सब्जियाँ व ऋत्वानुसार पकनेवाले फल उनके आहारका काम देतें तथा धारोष्ण दूध और सदा शीतल लस्सी उन्हें उसी प्रकार स्वादिष्ट लगती जैसे देवताओंको अमृत ! किसी साधु-संतके मुखकमलसे सुना गया एकाध उपदेशात्मक दोहा अथवा नैतिक आख्यान उनके ज्ञानभंडार भरनेके लिए पर्याप्त था ।
ऐसे परिवेशमें अक्षरज्ञानसे वंचित रहनेवाले दित्ताने अपनी विशिष्ट प्रतिभासे ताश या शतरंजका खेल हों या कबड्डी आदिकी स्पर्धा; साहसिकता स्वरूप निशानबाजी-मल्लयुद्ध-गदायुद्ध हों या चित्रकारितादि अनेकविध कलाक्षेत्रों में सदा-सर्वदा विजय ध्वज ही फहराया था। अपने मित्रोंको सैनिक शिक्षा देनेवाले इस बाल योद्धाके लिए सेनानियों की हूबहू नकल करना-मनोविनोदके साधन जैसा था। वे अपने साथियोंके बेताज बादशाह थे, तो नैतिकता-प्रमाणिकता में भी अपना सानी नहीं रखते थे। सच्चाईमें उनके वचनोंको ही प्रमाणरूप माना जाता था।
माँ भारती जिस समय स्वतंत्रताकी प्रसुति पीड़ासे कराह रही थी, हिन्दुस्तानके कोने-कोने में जब शौर्य-साहसके बिगुल बज रहे थे, ऐसे नाजूक कालमें-गणेशचंद्रजीका आत्मज़-पिताके अनुकरण स्वरूप हाथमें नंगी तलवार लेकर डाकूओंसे अपने घरकी सुरक्षाके लिए खडा रहनेवाला दित्ता-सत्
और सत्यशास्त्र रूप शस्त्रोंके बलपर श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वर बनकर सारे समाजकी अंतरंग शत्रुओंसे रक्षा करनेको कटिबद्ध हों इसमें क्या आश्वर्य?! आपकी नाड़ियोंमें बहनेवाले पराक्रमी पिताकी शूरवीरताके संस्कारयुक्त खूनके कारण कूट-कूट कर भरी पड़ी साहसिकता और निर्भीकताके बल पर ही जीवनके हर मोड़ पर डट कर मुकाबला करके आप सदा विजयी बनकर गुज़रें है-चाहे बचपनमें नदीमें से डूबती मुस्लिम अबलाको उसके अंगज़ समेत बाहर निकाल कर बचानेका प्रसंग
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