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मदीय निखिल प्रश्न व्याख्यातः शास्त्रपारग ।।
(३) “कृतज्ञता चिलमिदं ग्रन्थ संस्करणं कृतिन्
यत्न संपादितं तुभ्यं श्रद्धयोत्सृज्यते मया ।।" । तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियाँ- ऐसे कई देश-विदेशके विद्वान-पंडित, राजा-महाराजा, महात्मासाधु-संन्यासियोंकी अनन्य प्रशस्तियाँ प्रापक उत्तम आत्मा का जिस समय इस धरती पर अवतरण
और विचरण होनेवाला था, उस समय इतिहास शहादत-बलिदान-वीरता-पराक्रमकी ओर करवट बदल रहा था। बाह्यसे मनमोहक-मंद समीर, आभ्यन्तरसे सभ्यता और संस्कृतिके मूलभूत संस्कारों पर कुठाराघात करनेवाली विषाक्त हवाके झकोंरोंकी तरह समाजको दिशाभ्रान्त करता जा रहा था। माँ भारतीके बाल नैतिक एवं आर्थिक रूपसे बिछे हुए षड्यंत्रोंकी जालमें फँसकर, क्रूरता से बेहाल होते जा रहे थे। 'सोनेकी चिडिया' के अंग-प्रत्यंग विक्षिप्त होते जा रहे थे। अंग्रेजी साम्राज्यकी नागचूइ, प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। नैराश्य और जड़तापूर्ण प्राचीन धर्म और सुधारवादी नए पंथ एवं धर्मों के बीच संघर्ष प्रारंभ हो गया था। अज्ञानसे घिरे लोग अपने गौरवपूर्ण इतिहासको भूल चूके थे। समाज तन-मन-धनसे शक्तिहीन-दुर्बल, विवेकहीन-अंधविश्वास और सदि परंपरासे जड़ होता जा रहा था। इस तरह एक और अनेकविध मत-मतांतर आधारित धर्म और दूसरी ओर भौतिक वृत्तियोंको चौधियानेवाले पाश्चात्य शिक्षणके प्रभावने भौतिकवादी तरंगोंमें बहकर लोगोंको सत्य धर्मकी सुधसे विमुख कर दिया था।
जैन समाज भी इससे अछूता कैसे रह सकता है ? ज्ञानवान् एवं प्राणवान् जैनी अज्ञान और मूढ़ताकी आंधीके थपेड़ोंको झेलता हुआ, शिथिलाचारी-संयम और तप त्यागके त्यागी-केवल भेखधारी साधुसंस्थाके नेतृत्वमें स्वार्थ और लोलूपताके प्रहारोंसे खंड-खंड़ हो रहा था। धर्म नेताओंकी धार्मिक नैतिकताके अस्त होते सूर्यके कारण भ्रान्त एवं क्लान्त श्रावक वर्गमें अनेक भ्रान्तियाँ फैल रहीथीं।
“कईं जन शिख पंथमें शामिल हो गए थे। बहुतसे अपने आपको सनातनधर्मी कहने लगे। जो व्यक्ति जैन धर्मके नियमों पर स्थिर न रह सकें वे आर्य समाजकी ओर झुक पड़े। सारांश यहि कि जैनों पर चारों ओर से छापा मारा जाता था और रक्षाके कोई उपाय दृष्टि गोचर न होता था। ऐसे समयमें जबकि.....जैन समाजमें ज्ञानका सूर्य अस्त हो चूका था और अज्ञानने डेरा जमाया हों-समाजकी रक्षाके लिए एक महान और उत्साही व्यक्तित्वका प्रकट होना अनिवार्य था, जो अपनी विद्वत्तासे सुप्त जैन समाजको जागृत कर उसे अपने कर्तव्योंसे परिचित करवाता और विरोधियोंके निराधार आक्षेपोंका खंडन करके समयकी आवश्यकतानुसार जैन समाजको जगाकर जैन धर्मका डंका देश-विदेशमें बजाता। मूर्तिपूजाकी विरोधी तरंगोंका मुकावला कर उन्हें पीछे धकेल देता।” शिशु आतमका क्षत्रिय कुलमें अवतरण---ऐसे कस्मकसके नाजूक समयमें-एक सत्ता के अस्त और दूसरीके उदयकाल या क्रान्तिकालमें पंजाबके पराक्रमशाली, रण कौशल्य के कीर्तिकलश सदृश कलश जातिके , चौदहरा कर्पूर ब्रह्मक्षत्रिय कुलके, साहसिक-स्वाश्रयी-शूरवीर एवं युद्धप्रिय 'गणेशचंद्र' और स्नेद एवं मधुरताकी मूर्ति 'रूपादेवी' के संसारमें जैनशासनके समर्थ ज्योतिर्धर, शास्त्र और
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