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हों या युवानीमें पूज्य गुरुदेव एवं साथियोंकी रक्षा हेतु भिल्ल से भीड़ कर उसे सबक सिखानेका अवसर हों; चाहे किशोरावस्थामें पालक पिताश्री जोधाशाहकी लखलूट सम्पत्तिका लुभावना आकर्षण छोड़नेका पल हों या स्थानकवासी संप्रदाय के अत्यंत सम्माननीय और प्रतिष्ठित जीवन त्यागनेका समय आयें हर वक्त दृढ़ निर्धारसे सत्यपंथके प्रवासी बनकर विजयकूच ही की हैं। साथसाथमें आत्मिक अहिंसक युद्धमें भी वीरता धीरताके बल पर आंतररिपुओंको परास्त करनेमें सदाबहार बसंतकी भाँति खिल उठे हैं।
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लघुवयमें पितृवियोग---लेकिन, गणेशचंद्रजी अपने प्रिय पुत्रकी साहसपूर्ण बालचर्या में बीज़रूपसे रही हुई गुणसंततिके भाव विकासको देखनेके लिए सौभाग्यशाली न बन सके न वीर पुत्र आत्माराम, वीरपिताकी पुनित छत्रछायामें अपने चमत्कारपूर्ण भावि जीवनको विकासमें लानेकी उपयुक्त सामग्रीसे लाभान्वित हो सके। भाग्य विधाताकी भव्य बुलंदीने हिंसात्मक वीरताकी परिणति प्रगट होने पूर्व ही उसे अहिंसात्मक परिवेशका पुट देकर प्रमार्जित करनेकी चेष्टा की। तात्त्विक दृष्टिसे कर्मोदयसे प्राप्त इस परिस्थितिके निर्माणमें निःसंतान जागीरदार सोढ़ी अत्तरसिंहजीकी, आत्मारामजीको अपने वंशतंतु कायम करनेवाले पुत्र रूपमें प्राप्त करनेकी प्रबल जिगिषा रूप दृष्टि निमित्त बन गई। क्योंकि महन्त श्री सोढ़ीजीकी पैनी दृष्टिसे, दित्ता- किसी वनराज शेरकी संतान भेड़-बकरोंके समूहमें गलतीसे रास्ता भूलकर आ पहुँची हैं, अथवा कोई तेजस्वी नक्षत्र टूटकर पृथ्वीपर आ गिरा है, जो भविष्यमें या तो राजा होगा या राजमान्य गुरु । ".
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अत्तरसिंहजीकी 'पुत्रदान' याचनाको ठुकरानेके परिणाम स्वरूप गणेशचंद्रजीको जीवनसे हाथ धोना पड़ा और नव पल्लवित पौधे स्वरूप अबोध बालक दित्ताको, उसकी भाग्यदोरने जीराके लाला जोधेशाहजीके घर पहुँचाकर धर्मामृत से अभिसिंचित जीवनोद्यानमें विकस्वर होकर अहिंसा धर्मके वट वृक्ष स्वरूप पानेका सौभाग्य बक्ष दिया वि. सं. १९०६ । जोधाशाहजीके घर परवरिश--- बाल दित्ताका दिल इस समस्यामें उलझा था कि आखिर इस प्रकार प्राणप्यारे 'माँ-बाप' अपने कलेजेके टूकडेको क्यों त्याग रहें हैं? अफसोस, इस उलझनको सुलझानेवाला इस नये घर-परिवार परिवेशमें, समयके प्रवाहके अतिरिक्त कोई न था । शनैः शनैः देवीदास नामाभिधान दित्ता इस नये वातावरण परिवार मित्रमंडलादिके साथ हिल मिल गया। पारिवारिक जनोंके निःसीम वात्सल्य प्यार दुलारने मनके घावको रुझाने में अक्सीर मल्हमका कार्य किया और अब उसका मन लगने लगा। "
उस परिवारके धार्मिक संस्कार रूप 'अहिंसा परमो धर्म की प्रकाशमान तेज़रेखाने उसे पतंगेकी भाँति अपनी ओर आकर्षित किया, जिसने अपनी अंतिम सांस तक उस तेज़रेखा को विशेष प्रज्ज्वलित और प्रकाशित रखनेके लिए सर्वस्व समर्पित किया।
प्रत्येक प्रभाविक व्यक्तित्वधारी अपनी प्रारंभिक अवस्था किशोरावस्थामें जिस मानसिक कसमकसका सामना करता है, वही अनुभव वे भी करने लगे। आत्मा की अगोचर अदम्य शक्ति का स्रोत फूट पड़ने के लिए विवश बनता जाता था। मनोमंथन मानसिक बिलोइन कुछ करनेके लिए
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