________________
रहे। संघमें फैले शिथिलाचारको दूर कर चारित्रनिष्ठ और शुद्ध समाचारी स्थापित करने हेतु यावज्जीव आचाम्ल तपका अभिग्रह किया, जिससे प्रभावित हुए मेवाड नरेश झैलसिंहने उन्हें 'महातपा'का बिरूद दिया। स्वर्गः वी.सं. १७५७ वीर शालिगाँव में। (तवसे 'वडगच्छ'का नाम 'तपागच्छ' चला, जो वर्तमानमें भी सर्वमान्य चल रहा है ।) देवेन्द्र सरिजी---तत्त्व निष्णात, संस्कृतके अधिकृत विद्वान, सैद्धान्तिक एवं आगमिक ज्ञान के गंभीर ज्ञाता, 'पंच कर्मग्रन्थ' प्रणेता, रोचक एवं प्रभावक व्याख्याता, विशाल शिष्यगणधारी, मधुर कवि श्री देवेन्द्र सूरिजी म.ने कर्मग्रन्थोंकी स्वोपज्ञ टीका, सिद्ध पंचाशिका सूत्रवृत्ति, धर्मरत्नवृत्ति, श्रावक दिनकृत्य सूत्र, सुदर्शन चरित्र, वन्दारुवृत्ति (श्रावकानुविधि) 'कुलक' आदि अनेक दार्शनिक सूत्रों और . मधुर स्तोत्रोंकी रचना की। स्वर्गः वी.सं. १७९७में हुआ। धर्मघोष सूरिजी---ये देवेन्द्र सूरिके शिष्य थे। अपने गुरुबंधु विद्यानंद सूरिजीको साथमें रखकर, इन्होंने खंभातमें लघुपौषधशालाका निर्माण करवाया। सोम प्रभ सूरि (द्वितीय)---जन्म वी.सं १७८० से स्वर्ग. १८४३। बहुश्रुत-शास्त्रनिपुण, श्री धर्मघोष सूरिजीके शिष्य एवं श्री परमानंदादिके गुरु श्री सोमप्रभजीने ग्यारह वर्षकी उम्रमें दीक्षा और बाईस वर्षकी आयुमें आचार्य पद प्राप्त किया। चितौड़के ब्राह्मणोंसे बुद्धिकौशल्यसे विजय पायी। भीमपल्लीमें ज्योतिषशास्त्रके बल पर अनिष्ठ घटनाका संकेत देकर श्री संघको संकटसे बचाया। २८ चित्रबंध काव्य रचना से काव्यसंयोजना कौशल्य का विशिष्ट परिचय प्रदान किया। सोमतिलक सूरीजी म.---इन्होंने क्षेत्रसमास'-भौगोलिक ग्रन्थकी, रचना की। देवसुंदर सूरिजी---(इनके शिष्य गुणरत्नसूरिजीम.ने महत्त्वपूर्ण धातु संकलनका व्याकरण ग्रन्थ'क्रियारत्न समुच्चय', दार्शनिक ग्रंथ ‘षड्दर्शन समुच्चय' की तर्करहस्य दीपिका टीका, कल्पान्तर्वाच्य (पर्वाराधन और कल्पसूत्र उपयोगिता), चतुःशरण, आतुर प्रत्याख्यान, संस्तारक और भक्त परिज्ञा-इन प्रकीर्णक ग्रंथ, छ कर्मग्रंथ, और क्षेत्रसमासादि सूत्रों पर अवचूरि रची। इसके अतिरिक्त 'अंचलमत निराकरण' ग्रंथकी रचना की। सोमसुंदर सूरि ---विशाल शिष्य समुदाय---जयसुंदर, मुनिसुंदरादिके गुरु श्री सोमसुंदर सूरिजीने राणकपुरके त्रैलोक्य दीपक-धरण महाप्रासाद-१४४४ स्तंभयुक्त जिनमंदिरकी प्रतिष्ठा ६६ वर्षकी आयुष्यमें वी.सं. १९६६में करवायी थी। मुनिसुंदर सूरि---सहस्त्रावधानी, शास्त्रार्थ कुशल, “वादी गोकुलसंड" एवं “काली सरस्वती” (ये दो पदवी गुजरात सुलतान मुजफ्फर खाँ और दक्षिणके पंडितने दी थी) सिद्ध सारस्वत, पंचम प्रस्थानके७५ २४ बार आराधक; साहित्य रचना, धर्म प्रभावना मंदिर निर्माणादि में देदीप्यमान नक्षत्र, उग्र तपसे 'पद्मावती' देवीको प्रसन्न करनेवाले, 'संतिकर' स्तोत्र रचनासे महामारी उपद्रव निवारक, तीड़ उपद्रव रोककर 'अमारि' का प्रवर्तन करानेवाले, चौदह वर्षकी बाल वयमें त्रैवेद्य गोष्ठि ६ ग्रन्थके रचयिता, उपदेश रत्नाकर (स्वोपज्ञ वृत्ति)के स्वयिता श्री मुनिसुंदर सूरिका जन्म वी.सं. १९०६, दीक्षा-१९१४, वाचक-१९३६, सूरिपद-१९४८, और स्वर्गः १९७३ में हुआ। ये गच्छनायक, ग्रन्थकार, कवि, प्रभावक,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org