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मंत्रविद्या-शील, इतिहासकार, शास्त्राभ्यासी, तपस्वी, तेजस्वी, विद्या पुरुष थे। रत्नशेखर सरि---श्राद्ध प्रतिक्रमण वृत्ति, श्राद्ध विधि सूत्र वृत्ति, लघुक्षेत्र समास, आचार प्रदीपादि ग्रन्थ रचे। (इनके कालमें जिन प्रतिमा और आगम-पंचांगी उत्थापक लूपक लिखारीसे लूपक (लौका) मत निकला जिसमें प्रथम साधु-भूणा' नामक बना। आगे चलकर वी.सं. २१७९में लवजीने मुंह पर कपड़ा बांधकर स्थानकवासी-दंदिया पंथका प्रचार किया; जो ३२ आगम मानते हैं। उनके २२ फाँटे-२२ टोले होने के कारण ये बाईस पंथीभी कहलाते हैं।) लक्ष्मीसागर सूरि ---श्री सोमसुंदर सूरिजीके शिष्य माने जाते हैं। सुमति साधु , हेमविमलसूरि (इनसे विमल शाखा निकली) → आनंद विमल सूरि (वी.सं. २०४२में नागपुरीय तपागच्छसे अलग होकर प्रार्श्वचंद्रजीने पार्श्वचंद्र गच्छका प्रवर्तन किया) विजयदान सूरि-(स्वर्ग. वी.सं. २०९२) → विजय हीरसूरिजी---म. समाट अकबर प्रतिबोधक, जगद्गुरु, राजसन्मानित आ. हीरसूरि म. का. जन्म वी. सं. २०५३ ओशवाल परिवार में पालनपुरके कूरा और नाथीबाई की संतानरूप हुआ। तेरह साल की आयुमें विजयदान सूरि म.के पास दीक्षा ली और न्यायादि एवं धर्मशास्त्राभ्यास करके हीर-हर्ष मुनिने २०५७में पंडित और २०५८में वाचक पद प्राप्त किया और २०६० में आचार्य पदारूढ हुए तबसे वे हीरसूरि नामसे प्रसिद्ध हुए। सम्राट अकबरके आमंत्रणसे फतहपुर सिक्री जाकर अकबरको प्रतिबोधित करके एवं उसके जीवन पर्यंत अपने दो शिष्यों को वहाँ रखकर उसे जैनधर्म में स्थिर किया और वर्षमें छ मास पर्यंत अमारि पालन करवाया। वी.सं. २१२२ के भादों शुं.११को कालधर्म प्राप्त सूरिजीका अग्नि संस्कार अकबर बादशाह द्वारा भेंट की गई जमीनमें किया गया तब उस स्थल पर स्थित आम्र वृक्षको अकालमें आमफल लगे थे। उनके नाम स्मरण मात्रसे सर्प-विष नष्ट होता था। उनके दो हज़ार शिष्य विभिन्न स्थलों पर शासन प्रभावना करते रहते थे। विजयसेन सूरि---प्रखर धर्म प्रचारक, उत्तम व्याख्याता, उग्र विहारी, गुरु प्रति भक्तिवान और धर्म प्रति श्रद्धाशील, श्री हीर सूरि म. के सबल सहायक-उनकी ख्याति को चार चांद लगानेवाले-उनके उत्तराधिकारी, प्रभावशाली व्यक्तित्वधारी श्री विजयसेन सूरि म. सम्राट अकबरको विशेष रूपसे प्रभावित करके और दृढ़ धर्म श्रद्धाशील बनाकर लाहोरमें 'सवायी हीरजी' पदवीसे अलंकृत हुए। अकबरकी सभाके विद्वान ब्राह्मणों से वादमें विजयी हुए। अकबरके आग्रहसे लाहौरमें निरन्तर दो चातुर्मास किये जिससे उनकी गुरु म.से अंतिम भेंट-उग्रविहार करने पर भी-न हो सकी। सुविशाल गच्छका सफल संचालन करते करते वी.सं.२१४२ में स्वर्गवासी हुए। उनको आचार्यपद अहमदाबादमें प्राप्त हुआ। उन्होंने जिनशासनकी महती प्रभावना की। श्री विजयदेव सूरि म.---प्रभावशाली संघनायक, विशाल विचार श्रेणीधारी, उदार हृदयी, विद्वान, जहांगिरि महातपा, जनप्रिय विजय देव सूरिजीका जन्म गुजरातके ईलादुर्ग (ईडर) नगरमें पिता 'स्थिर'-माता 'रूपा' के घर वी.सं.२१०४में हुआ। पारिवारिक धार्मिक संस्कारवश माता रूपादेवीके साथ अहमदाबादमें वी.सं.२११३में माघ शु. १०को वासदेवने दीक्षा ली। मुनि विद्याविजयको विद्यार्जन
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