________________
उपधानवाच्य ग्रन्थकर्ता मानदेव सूरि (तृतीय) --(इसी समयमें 'आम' राजा प्रतिबोधक श्री बप्पभट्टाचार्यजी वी.सं. १२७० में हुए) → विमलचंद्र सूरि → श्री उद्योतन सूरिजी---आबू तलहटीके 'तेली' गाँवमें संतानवृद्धि-सहजयोग जानकर एक वटवृक्षके नीचे एक साथमें आठ शिष्योंको आचार्य पदवी प्रदान की (तवसे 'वनवासी गच्छ'का पाँचवा नाम 'बड़गच्छ' चला वी.सं. १४६४) इनका स्वर्गवास पंद्रहवी शतीमें हुआ) सर्वदेव सूरि---चंद्रावतीमें कुंकण मंत्रीको प्रतिबोधित करके दीक्षा दी। वी.सं.१४८०में राम सैन्यपूरमें ऋषभदेव और चन्द्रप्रभके चैत्योंकी प्रतिष्ठा करवायी। , रूपदेव सूरि → सर्वदेव सूरि (द्वितीय) → यशोभद्र सूरि और नेमिचन्द्र सूरिजी (उद्योतनसूरि
र्धमान सुरि, जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर सरि, जिनचंद्र सूरि, नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि आदि-खरतर गच्छ परम्परा का प्रारम्भ) यशोभद्र सूरिजीके पट्टधर श्री मुनिचंद्र सूरि--- धर्म बिन्दु, योगबिन्दु, उपदेशपदादि ग्रंथोके रचयिता। गुरुभाईको प्रतिबोध देने हेतु 'पाक्षिक सप्ततिका' ग्रन्थकी रचना की। (चन्द्रप्रभजीने 'पौर्णमिया गच्छ' चलाया जो पाक्षिक पूनमकी मानते हैं जबकि उपाध्याय नरसिंहजीने वी.सं. १६८३में 'अंचलगच्छ स्थापित किया) अजितदेव सूरि--- ‘स्याद्वाद रत्नाकर' के रचयिता, दिगम्बर विजेता, आरासणमें श्री नेमिनाथजीकी प्रतिष्ठाकारक, फलवर्धिमें चैत्य-बिम्बकी प्रतिष्ठा करवानेवाले शासन प्रभावक आचार्य श्री अजितदेव सूरिजी म. का स्वर्गवास १६९० में माना जाता है (इनके समयमें देवचंद्र सूरिजीके शिष्य, कुमारपाल प्रतिबोधक, कलिकाल सर्वज्ञ, साढे तीन क्रोड़ श्लोक रचयिता, युग निर्माता, पांडित्य, पारसमणि, असाधारण प्रज्ञा सम्पन्न और विधाधिष्ठात्री श्री सरस्वती देवीके कृपापात्र, लब्धिधारी, विविध गुप्त विद्याओंके ज्ञाता, अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न, अनेक सद्गुण श्रेणिमंडित आचार्य श्री हेमचंद्र हुए जिनसे जिनशासनकी महती प्रभावना हुई) समर्थवादी श्री विजयसिंह सूरि (वी.सं. १७०५) → श्री सोमप्रभ सूरिजी--- 'सुक्ति मुक्तावली' (सिन्दुर प्रकर) के रचयिता, महामंत्री जिनदेवके पौत्र और सर्वदेवके पुत्र सोमप्रभजीका जन्म वैश्य वंशीय पोरवाल-जैन धर्मीय आस्थायुक्त संस्कारवाले परिवार में हुआ। श्री विजयसिंह सूरिजीके पास दीक्षा ग्रहण करके आगमज्ञाता बने जिससे गुरुने योग्यता जानकर आचार्यपद प्रदान किया। कुशल कवि, मधुर वक्ता और समर्थ साहित्यकार थे। सुमतिनाह चरियं, कुमारपाल पड़िबोहो, शृंगार-वैराग्य तरंगिणी (एक ही श्लोकके शृंगार और वैराग्य-दोनों प्रकारसे अर्थघटन हों) सिन्दूर प्रकर, शतार्थकाव्य-कल्याणसार (प्रत्येक श्लोकके सौ अर्थ हों) आदिकी रचना की है। इनका समय अठारहवीं शतीका माना जाता है। मुनिरत्न या मणिरत्न सूरि → श्री जगच्चंद्र सूरि---त्यागी, वैरागी, विशिष्ट कोटिके विद्वान, महातपस्वी, पोरवाल वंशीय श्रेष्ठि पूर्णदेवके लघुपुत्र जिनदेवने पारिवारिक संस्कारसे वैरागी बनकर दीक्षा ली। गंभीर शास्त्राध्ययनसे योग्य बनकर आचार्य पद प्राप्त किया। मेवाड़ शास्त्रार्थमें अभेद्य
(41)
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org