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________________ आचरण ही उपदेश होता है। जैसे महात्माजीने गुड़ न खानेका आचरण करके बालकको दिखाया तब उस बालकने भी आप ही गुड़ खाना छोड़ दिया। वैसे ही उन महापुरुषोंका आचरण ही भक्तगण पर प्रभाव छोड़ जाता है और जन समुदाय उनका अनुसरण करने लग जाता हैं। सिद्धान्त एवं व्यवहारका समन्वयः- भगवान श्री महावीर स्वामीके सिद्धान्तों की उपयोगिता सर्वदेशीय, सर्वदा, समान रूपसे अनुभव होती है, क्योंकि वे सिद्धान्त-शाश्वत सत्यता समेटे हुए हैं-सर्वज्ञके मुखारविंदकी सुवास सर्वके लिए समान सुखदायी होती है। तत्कालीन समाजको वे सिद्धान्त जितने उपयोगी थे और हो सके, शायद इससे कई गुणा प्रबलतम आवश्यकता साम्प्रतकालमें महसूस हो रही है। -यथा संसारभरके जीवोंको मरण भयसे मुक्त करा सकता है 'अहिंसा का अमोघ अस्त्र; विश्वासका वातावरण वितरित हो सकता है 'अन्त त्याग' के एलान से; समस्त दुनिया की संपत्ति-सुरक्षा की चिंताकी चिनगारी से लगी अशांतिकी आग बुझ सकती है भ. महावीर के 'अस्तेय'के आदेश पालनसे: मानवोंके तन-मनके अमर्याद स्वच्छंदाचार और व्यभिचारको अंकुशित कर सकता है अब्रह्मका संपूर्ण त्याग या स्वदारा (स्वपत्नी) संतोषव्रतका अंगीकरण: अखिल विश्वकी अपरिमित आवश्यकताओंको परिमित बनाकर, लोभ-लालचसे मुक्त एवं धनवानोंको दीन-दुःखी के बेली बननेका सौभाग्य सम्पन्न कराता है अपरिग्रह का सिद्धान्त या परिग्रहके परिमाण की प्ररूपणा। ___. अग्रोल्लिखित अनुसार मानसिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तनावों से आराम प्रदाता है अनेकान्तवाद-स्याद्वाद-सापेक्षवाद का व्यावहारिक उपयोग-जिससे मिल सकता है अनेक क्लिष्ट उलझनोंका यथाशीघ्र-सुखद-संतोषप्रद समाधान और विश्व शान्ति का रामबाण औषधा इस तरह सर्वांग-सम्पूर्ण-विश्व धर्म के सिद्धान्तोंको जीवन मूल्य बनाकर आचरण करकें कल्याण साधना हों यही जैन धर्मकी आत्मा की आवाज़ है। अब ऐसी कल्याण साधना करनेवाले महानुभावोंका परिचय प्राप्त करें। भगवान महावीर स्वामीकी शिष्य पट्टावली (परम्परा):-६६ वीतराग-देवाधिदेव श्री महावीर स्वामीके केवलज्ञान प्राप्ति पश्चात् सर्वज्ञ भगवंतने चतुर्विध श्री संघ की स्थापना की। 'त्रिपदी के प्राप्त होने पर बीजसे वटवृक्षकी भाँति बीज़ बुद्धिधारी उनके ग्यारह मुख्य शिष्य-गणधर-और अन्य चौदह हज़ार साधुओंके समुदायको भिन्न भिन्न नव विभाग-गण (एक । ही गुरुके पास समान वाचना-अभ्यास-प्राप्त करनेवाला शिष्य समूह) में विभक्त किया गया। अन्ततोगत्वा भगवान महावीर स्वामीके जीवनकालमें ही, इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मास्वामीको छोड़कर शेष नव गणधर, सर्व कर्मक्षय करके अजर, अमर, अक्षय ऐसे सिद्धपद प्राप्त हुए-मोक्षगामी बने। इसलिए उन सबसे वाचना (शिक्षण) प्राप्त करनेवाले सर्व मुनियोंकी जिम्मेवारी पंचम गणधर श्री. 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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