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यह तो हुआ पारलौकिक-आध्यात्मिक उन्नतिके साधना-पथका आलेखन। लेकिन, वीतराग श्री महावीर केवल आदर्शवादी ही नहीं थे; उनके सर्वांगिण केवलज्ञानमें व्यवहारभी तादृश था। यही कारण है कि उनके उद्बोधनोंमें निश्चयके साथ व्यवहारका, परलोकके साथ इहलोकका, निःकर्मा आत्म स्वरूपके साथ सकर्मा आत्माके रूपका, निजात्माकी पूर्णानंद एवं चिदानंद मस्तीके साथ पुद्गलानंदके स्वरूपका, अध्यात्मके साथ भौतिकता-भोग विलासका यथास्थित अवलोकित निरूपणचक्षुगोचर होता है। सिद्धान्त संग्रह- भ. महावीरकी अर्थयुक्त गंगोत्रीके अमृतमय वाक्प्रवाहको गणधर भगवंतोंने सूत्र रूप बांधोंमें संग्रहित किया और परमात्माकी अनुज्ञा प्राप्त, वही गंगोत्री शुद्ध और सहेतुक बन गई-जो कंठान (मुखपाठ) पठन-पाठन द्वारा अवधारित होती रही। आगे चलकर नवम-दसम शताब्दि पश्चात् लिपिबद्ध हुई एवं पंचांगी स्वरूप पाकर मानो अत्यंत जाज्वल्यमान-तेजस्वी विद्युत्किरण सदृश स्पष्ट विस्तृत और बाल अभ्यासीके अभ्यास योग्य बनी। तदनंतर पूर्वधर श्री आर्यरक्षित सूरिजी म.के पृथक अनुयोग व्यवस्थापन द्वारा विशिष्ट स्पष्टीकरण और सरलता पा गई। जिसमें जैन-जैनेतरके लिए भूत-भावि-वर्तमान, द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, आराधना-विराधना का स्वरूप, आत्माके जीवसे शीव तक चौदह गुणस्थानक क्रमारोहणकी समुचित व्यवस्थाका एवं अन्य विभिन्न प्रकारके अनेक विषयोंका पर्याप्त पथप्रदर्शन प्राप्त होता है।
जिन शासनमें गुणी (व्यक्ति) पूजाको स्थान नहीं है क्योंकि व्यक्ति विशेषकी पूजासे दृष्टिराग आविर्भूत होता है-जो कर्मबंधका मुख्य कारण है;जबकि गुणपूजासे गुणानुरागिता प्रगटती है। प्रत्युत्पन्न गुणानुरागसे वीतरागता उद्भवित होती है और कर्म-निर्जराका भी साधन बनती है जो अंतिम साध्य-मोक्ष प्रप्तिकी सहायक है। ऐसे ही सर्वज्ञ-केवलज्ञान-गुणधारी, अनंत पदार्थ विषयोंका संपूर्ण-सर्वांग-समीचीन-सार्थक उद्घाटन करते हैं। उन्हीं उद्घाटित ज्ञानकी, उनके और अनुवर्ती आचार्यादि-मुनि भगवंतों द्वारा प्ररूपणा की जाती है।
जैन सिद्धान्तों एवं क्रियाधर्मका विहंगावलोकन करानेवाले उपरोक्त विवरणसे स्पष्ट होता है कि मर्मग्राही और तलस्पर्शी ज्ञानार्जन करके परहिताय प्रदान करनेवाले एवं पशु-पक्षी या सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव-जंतु आदि जीव मात्रकी रक्षाके लिए प्राण न्योछावर करनेवाले; मरणान्त कष्ट दाताको भी कर्म निर्जराके परमोपकारी साथी माननेवाले; अलौकिक प्रज्ञा-प्रतिभाके स्वामी फिरभी सहज निरभिमान स्वभावी; सर्वदा-सर्वत्र-सर्वको सुलभ, सुगम और सानुकूल जैनाचार्यों की समस्त जीवन वृत्ति-प्रवृत्ति सकल श्री जैन संघ और विशाल जन समुदाय के लिए उपकारी एवं सर्वजन-सर्वजीव हितकारी ही होती है। उनकी जीवन शैली ही अत्यंत प्रभावशाली होती है। उनके कदम-कदम पर प्रत्येक आचारविचारमें रत्नत्रयीका ही प्राधान्य होता है। सत्य ज्ञानार्जन पश्चात् उसका स्वीकार और असत्यका प्रतीकार करने में नित्य अग्रसर होनेवाले ये महामुनि महान क्रान्तिकारी सदृश अपने बुलंद व्यक्तित्व एवं प्रभाविक चरित्रसे ही जनसमूहका सफल और सक्षम नेतृत्व कर सकते हैं और स्व-पर आत्म कल्याण कर सकते हैं। उनको अलग रूपसे व्यवहार प्ररूपणाकी आवश्यकता ही नहीं होती। उनका
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