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कर्मोदयसे) प्रत्यारव्यानादि नहीं कर सकते लेकिन आठ प्रकारके दर्शनाचारोंका संपूर्ण निरतिचार पालन करनेवाले अविरति सम्यक दृष्टि श्रावक और (ii) जधन्य-मध्यम-उत्तम-तीन भेदवाले देशविरति श्रावक। जधन्य---ऐसे श्रावकोंमें अविरति सम्यक दृष्टि श्रावकके गुण विद्यमान होते ही है, इसके अतिरिक्त स्थूल प्राणातिपातसे विरमण, अभक्ष्य भक्षणका त्याग और नवकारशी आदि प्रत्याख्यान करनेवाले श्रावक आते है। मध्यम-इनसे अधिक विकसित गुणोंके धारक, धर्मयोग्य षट्कर्म--- 'देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, दानं'; छः आवश्यक--- 'सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्यारव्यान'; आदि नित्य करें और श्रावक करणीके प्राण आधारस्तंभ । बारह व्रत- 'पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत'-जिन्होंने अंगीकार किये हैं ऐसे श्रावक मध्यम कहलाते हैं और उत्तम---इनसे एक कदम आगे-सचित आहार त्यागी, एकबार भोजनकर्ता (एकासन कर्ता), संपूर्ण-त्रिविध ब्रह्मचर्य पालक, और श्रावक योग्य कर्तव्य अहर्निश निष्ठापूर्वक पालन करनेवाले श्रावक उत्तम कहलाते हैं।
विविधधर्म- सम्यक् रत्नत्रयी (ज्ञान-दर्शन-चारित्र)की आराधना रूप; अथवा नवपद समाहित अरिहंतसिद्ध रूप सुदेव, आचर्योपाध्यायसाधु रूप सुगुरु, और सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपरूप सुधर्म--- तत्वत्रयीकी साधना स्वरूप अथवा पूर्वाचार्य निर्दिष्ट-अहिंसा, संयम, तपरूप मंगल अनुष्ठान रूप ये त्रिविध त्रिविध आराधना-साधना-उपासना।
चतुर्विध धर्म- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावाश्रित-दान, शील, तप, भाव रूप आराधना अथवा एकांत कर्मनिर्जराकारक धर्म-अर्थ-काम- मोक्षरूप आराधना धर्म। क्रोधादि चार कषाय के निग्रह करने हेतुचार संज्ञा के त्यागपूर्वक चार प्रकारके धर्मध्यानकी साधनारूप धर्म।
पंचविध- अहिंसा-अमृषा (अनृत त्याग)अस्तेय-अब्रह्म त्याग-अपरिग्रह रूप पाँच व्रतोंकी आराधना अथवा परम और चरम इष्ट फल प्रदाता-अरिहंत, सिद्ध, सूरि, पाठक, साधु पद स्थित पंच परमेष्ठि
वंतकी आराधना; अथवा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार रूप पंचाचारकी साधना; अथवा ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण, पारिष्ठापनिका-समितिकी उपासना रूप पालना; आदि अनेक आराधना-साधना-उपासनाकी प्ररूपणा की है।
इस प्रकार विविध आराधना-साधना करके, योग-उपयोग युक्त, अप्रमत्त भावसे अनंतानंत कर्मक्षयकी हेतुभूत अनुपमेय आराधनाके बल पर आस्थाके आगार ऐसे अणगार, चौदह गुणस्थानकमिथ्यादृष्टि, सास्वादन, सम्यक-मिथ्या दृष्टि (मिश्र), अविरति सम्यक् दृष्टि, देशविरति, प्रमत्त सर्वविरति, अप्रमत्त सर्वविरति., अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर), अनिवृत्ति बादर, सूक्ष्म संपराय, उपशांत मोह, क्षीण कषाय, सयोग केवली, अयोग केवली---पर क्रमशः आरोहण करते हुए, आत्मलक्षी विकास प्राप्त करते हुए अंततोगत्वा यह जीवात्मा सर्व कर्म रहितावस्था-मोक्षानंदका आह्लाद प्राप्त करता है-सिद्धशिला पर सिद्धिपद प्राप्तिका अधिकारी बनता है, जो संसारमें आत्माकी चरम एवं परम अवस्था है। अथवा कहो कि आत्माका सत्य, शिवंकर, सुंदर स्वरूप है-उत्तमोत्तम प्राप्ति है।
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